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व्यवस्था परिवर्तक बाबासाहेब- के.के.एल. गौतम, एडवोकेट

रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद 1894 मे सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद, अम्बेडकर की मां की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाये। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल मे जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था।

 

रामजी सकपाल ने 1898 मे पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ बंबई चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढा़ई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरुद्ध हो रहे इस अलगाव और, भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद अम्बेडकर ने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज मे एक खुशी की लहर दौड़ गयी और बाद में एक सार्वजनिक समारोह उनका सम्मान किया गया इसी समारोह में उनके एक शिक्षक कृषणजी अर्जुन केलूसकर ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की, श्री केलूसकर, एक मराठा जाति के विद्वान थे। अम्बेडकर की सगाई एक साल पहले हिंदू रीति के अनुसार दापोली की, एक नौ वर्षीय लड़की, रमाबाई से तय की गयी थी। 1908 में, उन्होंने एलिफिंस्टोन कॉलेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका मे उच्च अध्धयन के लिये एक पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये। उनकी पत्नी ने अपने पहले बेटे यशवंत को इसी वर्ष जन्म दिया। अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता की बीमारी के चलते बंबई वापस लौटना पडा़, जिनकी मृत्यु 2 फरवरी 1913 को हो गयी।

 

डॉ. अंबेडकर की 64 विषयों पर मास्टरी थी, जो कि केंब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के 2011 के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा है। इस विश्वविद्यालय ने उन्हें विश्व इतिहास के प्रथम सबसे प्रतिभाशाली इंसान घोषित करके उनका गौरव किया है। अमेरिका के विश्वप्रसिद्ध कोलंबिया विश्वविद्यालय ने बाबासाहेब को विश्व के टॉप 100 विद्वानों में शीर्ष पर स्थान दिया तथा भारत में हुए दि ग्रेटेस्ट इंडियन नामक विश्वस्तर के सर्वेक्षण में भी बाबासाहेब 100 भारतीयों में 'सबसे महानतम् भारतीय' या दि ग्रेटेस्ट इंडियन चुने गए है।

 

बाबासाहेब के नाम से लोकप्रिय डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956); विश्व स्तर के भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाज शास्त्री, मानवविज्ञानी, संविधानशास्त्री, लेखक, दार्शनिक, इतिहासकार, धर्मशास्त्री, वकील, विचारक, शिक्षाविद, प्रोफ़ेसर, पत्रकार, बोधिसत्व, संपादक, क्रांतिकारी, समाज सुधारक, भाषाविद, जलशास्त्री, स्वतंत्रता सेनानी, बौद्ध धर्म पुनरुत्थानवादी, आन्दोलनकारी (ऐक्टिविस्ट) एवं दलित-शोषित नागरिक अधिकारों के संघर्ष के प्रमुख नेता थे और भारतीय संविधान के शिल्पकार भी है।

 

कई सामाजिक और वित्तीय बाधाएं पार कर, अंबेडकर उन कुछ पहले अछूतों मे से एक बन गये जिन्होने भारत में कॉलेज की शिक्षा प्राप्त की। अंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र व राजनीति विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से कई डॉक्टरेट डिग्रियां भी अर्जित कीं। अंबेडकर वापस अपने देश एक प्रसिद्ध विद्वान के रूप में लौट आए और इसके बाद कुछ साल तक उन्होंने वकालत का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की। डॉ॰ अंबेडकर को जागतिक बौद्ध संमेलन, नेपाल में बौद्ध भिक्षुओं ने बोधिसत्व की उपाधि प्रदान की, हालांकि उन्होने खुद को कभी भी बोधिसत्व नहीं कहा। महान बौद्ध भिक्षु महस्थवीर चंद्रमनी ने बाबासाहेब को इस युग का आधुनिक बुद्ध कहा है।

 

बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। हिंदू धर्म में मानव समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। जो इस प्रकार है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बाबा साहब ने इस व्यवस्था को बदलने के लिए सारा जीवन संघर्ष किया। इस लिए उन्होंने बौद्ध धर्म को ग्रहण करके इसके समतावादी विचारों से समाज में समानता स्थापित कराई। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।

 

सर्वोच्च उपाधियों के साथ शिक्षित बने

 

गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय मे जाकर अध्ययन के लिये अम्बेडकर का चयन किया गया साथ ही इसके लिये एक 11.5 डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। न्यूयॉर्क शहर में आने के बाद, अम्बेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। शयनशाला मे कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब मे रहने चले गए और उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया। 1916 में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पी. एच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंततः उन्होंने पुस्तक "इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया" के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि, उनका पहला प्रकाशित लेख "भारत में जाति: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास था"।

 

अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर अम्बेडकर लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रे'स इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया। अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर बीच मे ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ ये विश्व युद्ध प्रथम का काल था। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन मे अचानक फिर से आये भेदभाव से अम्बेडकर उदास हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा।

 

अपने एक अंग्रेज जानकार बंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें बंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। 1920 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू जी के सहयोग के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये। 1923 में उन्होंने अपना शोध प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी (रुपये की समस्यायें) पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा "डॉक्टर ऑफ साईंस" की उपाधि प्रदान की गयी।  कानून का अध्ययन पूरा होने के साथ ही साथ उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। भारत वापस लौटते हुये अम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। उन्हे औपचारिक रूप से 8 जून 1927 को कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पी एच.डी. प्रदान की गयी।

 

संघर्ष किया:शिक्षित बनकर

 

भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। 1920 में, बंबई में, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब्, अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् १९२६ में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन १९२७ में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

 

1 जनवरी 1927 को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन १९२८ में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।

 

पूना संधि- संघर्ष का असर

 

दूसरा गोलमेज सम्मेलन : अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है।

 

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ  राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा, उनको शिक्षित होना चाहिए, एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।

 

इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।

 

1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकी सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।

 

आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए। आंबेडकर 20-25 साल के लिये आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ।

 

पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे।

 

राजनीतिक अधिकारों हेतु संगठित हो

 

13 अक्टूबर 1935 को, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं।  इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।

 

1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।

 

1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में ‘हू वर द शुद्राज़’? की उत्तरकथा ‘द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी’ (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।

 

हिंदू सभ्यता जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?

 

अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमो मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।

 

उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें "भाईचारे" जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें "निचले दर्जे का" माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बाध्यता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसको बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं , जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।

 

"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।

 

हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।

 

क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी

 

संविधान निर्माण

 

अपने विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी के संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।

 

संघ रीति मे मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। अम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।

 

अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए धरा370व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, अम्बेडकर ने कहा :

 

मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।

 

1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु 6.12.1956 तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

 

बौद्ध धर्म में परिवर्तन

 

सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्ध सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम लेख, द बुद्ध एंड हिज़ धम्म को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अम्बेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार पहले दिन लगभग 500000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया। नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने हिंदू धर्म और हिंदू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। उन्होंने दुसरे दिन 200000 लोगों को और तिसरे दिन चंद्रपुर में 300000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध या कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।

 

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने दीक्षाभूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर,14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म का एक सार या दर्शन है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा 1000000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था। उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। बाबासाहेब की ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं। इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म, जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है। ये प्रतिज्ञाए बौद्ध धर्म का एक अंग है जिसमें पंचशील, मध्यममार्ग, अनिरीश्वरवाद, दस पारमिता, बुद्ध-धम्म-संघ ये त्रिरत्न, प्रज्ञा-शील-करूणा-समता आदी बौद्ध तत्व, मानवी मुल्य (मानवता) एवं विज्ञानवाद है।

 

महापरिनिर्वाण

 

1948 से, अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया। उनके अंतिम संस्कार के समय उन्हें साक्षी रखकर उनके करीब 10,00,000 अनुयायीओं ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, ऐसा विश्व इतिहास में पहिली बार हुआ।

 

कई अधूरे टंकलिपित और हस्तलिखित मसौदे अम्बेडकर के नोट और पत्रों में पाए गए हैं। इनमें वैटिंग फ़ोर ए वीसा जो संभवतः 1935-36 के बीच का आत्मकथानात्मक काम है और अनटचेबल, ऑर द चिल्ड्रन ऑफ इंडियाज़ घेट्टो जो 1951 की जनगणना से संबंधित है।

 

एक स्मारक अम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। अम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद, आंध्र प्रदेश का डॉ॰ अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय- मुजफ्फरपुर, डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा नागपुर में है, जो पहले सोनेगांव हवाई अड्डे के नाम से जाना जाता था। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है।

 

मुंबई मे उनके स्मारक हर साल लगभग पंधरा लाख लोग उनकी वर्षगांठ (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र परिवर्तन् दिन (14 अक्टूबर) नागपुर में, उन्हे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं। सैकड़ों पुस्तकालय स्थापित हो गये हैं और लाखों रुपए की पुस्तकें बेची जाती हैं। अपने अनुयायियों को उनका महान संदेश था !' शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।

 

ग्रामीण जीवन पर अम्बेडकर बनाम गांधी

 

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर, महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक थे। उनके कई समकालीनों और कुछ आधुनिक विद्वानों ने उनके महात्मा गांधी (जो कि पहले भारतीय नेता थे जिन्होने अस्पृश्यता और भेदभाव करने का मुद्दा सबसे पहले उठाया था) के विरोध की आलोचना है, तो कई आधुनिक विद्वान डॉ. आंबेडकर, उनके विचार, कार्य और आंदोलन को सही मानकर उन्हें गांधी से बडा और महानतम् महापुरूष मानते है।

 

गांधी का दर्शन भारत के पारंपरिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था उन्होने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। अम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गांव छोड़ कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। बाबासाहेब का दर्शन भारत के हर शोषित गरीब एवं दलित व्यक्ति ने स्विकार करके उनके बाताए हुए रास्ते पर चलकर सफलता पाई।

 

आधुनिक भारत के निर्माता – डॉ. अंबेडकर

 

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का भारत के विकास में जितना योगदान रहा है, उतना शायद ही किसी और राजनेता का रहा हो। एक अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् और कानून के जानकार के तौर पर अंबेडकर ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी और देश उनके इस योगदान को लेकर आज भी जागरूक नहीं है।

 

·       डॉ. अंबेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन पर आधुनिक भारत का संविधान बनाने की जिम्मेदारी थी और उन्होंने एक ऐसे संविधान की रचना की जिसकी नज़रों में सभी नागरिक एक समान हों, धर्मनिरपेक्ष हो और जिस पर देश के सभी नागरिक विश्वास करें। एक तरह से भीमराव अंबेडकर ने आज़ाद भारत के DNA की रचना की थी।

 

·         इसके अलावा डॉक्टर अंबेडकर की प्रेरणा से ही भारत के Finance Commission यानी वित्त आयोग की स्थापना हुई थी।

 

·         डॉ. अंबेडकर के Ideas से ही भारत के केन्द्रीय बैंक की स्थापना हुई, जिसे आज हम Reserve Bank of India के नाम से जानते हैं।

 

·         दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड परियोजना और सोन नदी परियोजना को स्थापित करने में डॉ. अंबेडकर ने बड़ी भूमिका निभाई थी।

 

·         भारत में Employment Exchanges की स्थापना भी डॉक्टर अंबेडकर के विचारों की वजह से हुई थी।

 

·         भारत में पानी और बिजली के Grid System की स्थापना में भी डॉक्टर अंबेडकर का अहम योगदान माना जाता है।

 

·         भारत को एक स्वतंत्र चुनाव आयोग भी डॉ. भीमराव अंबेडकर की ही देन है।

 

·         ये वो योगदान है जिन्हें आज़ादी के बाद की तमाम सरकारों ने हमेशा ही अनदेखा किया है। यानी योजनाएं और विचार अंबेडकर के थे, लेकिन उनका श्रेय दूसरे लोगों ने लूटा।

 

·         भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बीच चले राजनीतिक शीत युद्ध यानी Political Cold War के कुछ उदाहरण ...

 

·         डॉ. अंबेडकर, जवाहर लाल नेहरू की सरकार में प्लानिंग का मंत्रालय चाहते थे लेकिन नेहरू ने अंबेडकर को सिर्फ कानून मंत्रालय दिया।

 

·         डॉ. अंबेडकर विदेश और रक्षा मामलों की समितियों में सदस्यता चाहते थे, लेकिन नेहरू सरकार ने डॉ. अंबेडकर को ऐसी किसी समिति का सदस्य नहीं बनाया।

 

·         डॉ. अंबेडकर, नेहरू सरकार की विदेश नीति से असहमत थे।

 

·         डॉ. अंबेडकर हिंदुओं में सामाजिक अधिकार और महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने की बात करने वाले हिंदू कोड को समाज सुधार के लिए ज़रूरी मानते थे लेकिन नेहरू सरकार ने अंबेडकर के मंत्री रहते हुए हिंदू कोड को स्वीकार नहीं किया।

 

·        डॉ. अंबेडकर को भारत रत्न सम्मान देने के लिए भी कोई पहल नहीं की गई। उनकी मौत के 34 वर्षों के बाद 1990 में वीपी सिंह सरकार ने उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया जबकि कांग्रेस ने डॉ. अंबेडकर को 'भारत रत्न' से सम्मानित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया।

 

·         बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर से जुड़ी तमाम सच्चाइयां है। इन सच्चाइयों को जानना और समझना आधुनिक भारत के निर्माण के लिए बहुत ज़रूरी हैं। डॉ. अंबेडकर को जातियों की सीमा में बांधना और उन्हें सिर्फ़ दलितों के मसीहा के तौर पर पेश किया जाना उनके साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा इसीलिए डॉ. अंबेडकर के मूल विचारों को Decode किया हैं।

 

·         अंबेडकर ने तो अपने स्कूल जीवन में ही तिरस्कार सहा था। स्कूल में बाकी दलित बच्चों की ही तरह अंबेडकर को भी बाकी सवर्ण बच्चों से अलग बिठाया जाता था। अंबेडकर के संस्कृत शिक्षक ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने से ही इनकार कर दिया था। बाकी के शिक्षक अंबेडकर की किताबों को हाथ भी नहीं लगाते थे।

 

·         अंबेडकर के साथ ये भेदभाव और तिरस्कार सिर्फ स्कूल जीवन तक ही सीमित नहीं रहा। उनका जीवन ऐसे तिरस्कार की घटनाओं से भरा हुआ है ।

 

·        एक बार अंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी से जा रहे थे, लेकिन जैसे ही गाड़ीवान को पता चला कि वो दोनों अछूत हैं, उन्हें बैलगाड़ी से नीचे फेंक दिया गया।

 

·         निचली जाति से होने की वजह से अंबेडकर का शोषण हर स्तर पर होता रहा। अंबेडकर जब विदेश से पढ़कर हिंदुस्तान लौटे तो बड़ौदा के महाराजा ने उन्हें अपना सचिव बना दिया। बेशक अंबेडकर का पद बड़ा था लेकिन उनकी नौकरी के दौरान भी कोई उनकी इज्जत नहीं करता था। चपरासी अंबेडकर के हाथ में फाइल पकड़ाने के बजाए फेंक दिया करते थे। उन्हें पीने के लिए पानी नहीं दिया जाता था।

 

·         मुंबई में अंबेडकर को उनके निचली जाति का होने की वजह से एक पारसी धर्मशाला से बाहर फेंक दिया गया था। उस दौर में अंग्रेजों से लड़ने के लिए पूरा देश खड़ा था तो दलित और शोषित लोगों के अधिकारों के लिए अकेले भीमराव अंबेडकर समाज के उच्च वर्ग और कांग्रेस से संघर्ष कर रहे थे।

 

·       डॉ अंबेडकर का मानना था देश की तरक्की के लिए देश के हर वर्ग को समानता का अधिकार मिलना ज़रूरी है। बचपन में हुए भेदभावों की वजह से अंबेडकर हिंदू धर्म को छोड़ना चाहते थे।

 

·       डॉ. अंबेडकर का मानना था कि हिंदू धर्म को छोड़ना धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि गुलामी की ज़ंज़ीरें तोड़ने जैसा है। डॉ. अंबेडकर की इस घोषणा के बाद हैदराबाद के निजाम समेत कई मुस्लिम संगठनों ने अंबेडकर को धर्म परिवर्तन के ऑफर दिए, लेकिन बाबा साहब ने हर ऑफर को ठुकरा दिया क्योंकि वो अपने समाज के लोगों को इज्जत से जीने वाला धर्म देना चाहते थे इसीलिए वो हिंदू धर्म को छोड़कर 1956 में बौद्ध धर्म की शरण में चले गए।

 

·         15 अगस्त 1947 को आज़ादी का जश्न डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के लिए एक बड़ी ज़िम्मेदारी लेकर आया। देश की नई सरकार को देश का संविधान बनाने के लिए एक काबिल व्यक्ति की तलाश थी जिसे कानून की जानकारी के अलावा देश और दुनिया की समझ और समाज की ज़रूरतों बारे में पूरी जानकारी हो और ये तलाश डॉ. अंबेडकर पर ख़त्म हुई।

 

·         डॉ भीमराव अंबेडकर को देश का पहला कानून मंत्री बनाया गया जिन्होंने अपनी बिगड़ती सेहत के बावजूद महज 2 साल के अंदर देश को एक मजबूत संविधान दिया।

 

·         अंबेडकर ने 1951 में हिंदू कोड बिल तैयार कर संसद में पेश किया जिसमें महिलाओं को भी समान अधिकार की बात कही गयी।

 

हिंदू कोड बिल के तहत पिता की संपत्ति में बेटी को समान अधिकार, विवाहित पुरूष को एक से अधिक पत्नी रखने पर प्रतिबंध, महिलाओं को भी तलाक़ का अधिकार शामिल था, लेकिन रूढ़िवादी हिंदू ताकतों और सरकार के अंदर ही बिल का विरोध करने वालों के सामने हिंदू कोड बिल लागू नहीं हो सका और सरकार में अपना प्रभाव घटने से निराश होकर डॉ. अंबेडकर ने 1951 में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे में डॉ अंबेडकर ने लिखा--

 

'आज हिंदू कोड बिल की हत्या कर दी गयी। ऐसे में मेरा मंत्री बने रहने का अर्थ समझ में नहीं आता। बिल में शादी और तलाक संबंधी विधेयक पर दो दिन की चर्चा चली फिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पूरे हिंदू कोड बिल को वापिस लेने की घोषणा कर दी, मैं हैरान रह गया। मैं ये मानने को तैयार नहीं हूं कि तलाक और विवाह संबंधी बिल को समय की कमी के चलते पास नहीं करवाया जा सकता, मुझे प्रधानमंत्री की नीयत पर शक नहीं है लेकिन हिंदू कोड बिल पास कराने के लिए जिस संकल्प और ईमानदारी की ज़रूरत थी वो उनमें नहीं दिखी।'

 

अपने इस्तीफे के बाद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ख़ुद राजनैतिक ज़िम्मेदारी से भले ही अलग कर लिया था लेकिन सामाजिक ज़िम्मेदारी को वो अपने अंतिम समय तक निभाते रहे। डॉ. भीमराव अंबेडकर को हम तक सिर्फ़ दलितों के मसीहा और संविधान निर्माता के तौर पर पेश किया गया है लेकिन उनकी भूमिका एक राष्ट्रनेता की रही जो चाहते थे देश का हर वर्ग आज़ादी की खुली हवा में सम्मान की सांसें ले सके। बाबा साहेब आंबेडकर विश्वमानव थे।

 

विरासत

 

अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है। स्वतंत्रता के बाद के भारत मे उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच को सारे राजनीतिक हलके का सम्मान हासिल हुआ। उनकी इस पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे आज के भारत की सोच को प्रभावित किया। उनकी यह् सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है। एक विद्वान के रूप में उनकी ख्याति उनकी नियुक्ति स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में कराने मे सहायक सिद्ध हुयी। उन्हें व्यक्ति की स्वतंत्रता में अटूट विश्वास था और उन्होने समान रूप से रूढ़िवादी और जातिवादी हिंदू समाज और इस्लाम की संकीर्ण और कट्टर नीतियों की आलोचना की है। उसकी हिंदू और इस्लाम की निंदा ने उसको विवादास्पद और अलोकप्रिय बनाया है, हालांकि उनके बौद्ध धर्म मे परिवर्तित होने के बाद भारत में बौद्ध दर्शन में लोगों की रुचि बढ़ी है।

 

अम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन के कारण बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ अस्तित्व मे आये है जो पूरे भारत में सक्रिय रहते हैं, विशेष रूप से महाराष्ट्र में। उनके दलित बौद्ध आंदोलन को बढ़ावा देने से बौद्ध दर्शन भारत के कई भागों में पुनर्जागरित हुआ है। दलित कार्यकर्ता समय समय पर सामूहिक धर्म परिवर्तन के समारोह आयोजित उसी तरह करते रहते हैं जिस तरह अम्बेडकर ने 1956 मे नागपुर मे आयोजित किया था।

 

कुछ विद्वानों, जिनमें से कुछ प्रभावित जातियों से है का विचार है कि अंग्रेज अधिकतर जातियों को एक नज़र से देखते थे और अगर उनका राज जारी रहता तो समाज से काफी बुराईयों को समाप्त किया जा सकता था। यह राय ज्योतिबा फुले समेत कई थी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रखी है।

 

विश्व के टॉप 100 विद्वानों में शीर्ष पर

 

कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्युयार्क, अमेरीका ने स्थापना वर्ष 1754, के 250 वर्ष (1754 से 2004) पूरे होने पर वर्ष 2004 में से, ऐसे 100 को कोलंबियन्स अहेड ऑफ देअर टाईम, (शॉर्टेड लीस्ट ऑफ नोटेबल पर्सन) नामक अपने सर्वेक्षण में अपने सौ ऐसे विद्वान छात्रों की एक लिस्ट जारी की, जिन्होंने दुनिया में महान कार्य किये और जो अपने-अपने क्षेत्र में महान एवं अद्वितीय रहे, जिसमें एक मात्र भारतीय बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर शामील थे। इस सूची की खास बात यह हैं इस में अमेरिका के 3 राष्ट्रपति सहित विश्व के 6 अलग-अलग देशों के राष्ट्राध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री, 40 नोबेल पुरस्कार विजेताओं, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के पहले न्यायाधीश सहित 8 अन्य सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, 22 से अधिक अमेरिकी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता शामिल हैं I इसके अलावे इस सूची में कई कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, विश्व के सर्वाधिक धनवान व्यक्ति वॉरेन बफे एवं कई दार्शनिक तथा विद्वान शामिल हैं I सूची में जो तीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, उनमें थॉडोर रूजवलेल्ट, फ्रेंकलिन रूजवेल्ट और डोविट एसनहॉवर सहित जर्जिया के राष्ट्रपति मिखैल साकाश्वीली और इथोपिया के राष्ट्रपति थॉमस हेनडिक, इटली के प्रधानमंत्री गियूलिनो अमाटो, अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री अब्दुल जहीर, चीन के प्रधानमंत्री तंगशोयी और पोलैंड के प्रधानमंत्री भी शामिल हैं I कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एक स्मारक बनाया है जिस पर इन 100 महान विद्वान विभूतियों के नाम लिखे गये।

इन सभी सन्मानित विभूतियों के नाम को सही क्रम से लगाने के लिए वहां विद्वानों की एक कमेटी बनाई गई। उस कमेटी ने भारतीय संविधान के रचियता बाबासाहेब डॉ. बी. आर. अंबेडकर का नाम टॉप 100 में नम्बर वन (प्रथम) पर रखा। इस स्मारक का अनावरण राष्ट्राध्यक्ष एवं नोबेल शांति पुरस्कार विजेता बराक ओबामा ने किया, यह स्मारक कोलंबिया विश्वविद्यालय के केम्पस में शास से खडा है। कोलंबिया विश्वविद्यालय ने बाबासाहेब को आधुनिक भारत के निर्माता, भारत के स्वतंत्रता के लिए लढनेवाले महान स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय संविधान निर्माता तथा भारत के करोड़ों शोषित, पिडित, दलित लोगों के मानव अधिकारों के लढनेवाले महान क्रांतिकारक बताकर उनके सन्मान में विश्वविद्यालय में विश्वभर के देशों के संविधानों और कानून की पढाई के उनके नाम से 'डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर अध्यासन' भी स्थापीत किया है। विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनॅशनल अॅण्ड पब्लिक अफेअर के हॉल में बाबासाहेब की शानदार पेन्टींग गर्व से लगवाई है। डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से डबल एम.ए. और पीएच.डी पढाई महज ढाई वर्ष में पुरी कि थी। डॉ. अंबेडकर द्वारा सामाजिक न्याय व समता के संबंध में भारतीय दलित समाज को हक दिलाने वाले संविधान निर्माण की उपलब्धि से प्रभावित होकर कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयार्क, अमेरिका ने जून 1952 में उन्हें 'डॉक्टरेट्' (डॉक्टर ऑफ लॉज्) की मानद उपाधि प्रदान की थी I

बाबासाहेब ने 1930 में न्यूयार्क टाईम्स को दिये हुए अपने इंटरव्यू में कहां था। 'कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढते समय जीवन में पहली बार मुझे सामाजिक समानता का अनुभव हुआ'।

प्रस्तुति: के. के. एल. गौतम, एडवोकेट (सुप्रिमकोर्ट)