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डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धम्म ही क्यों स्वीकार किया?- आनंद श्रीकृष्ण

डॉ. अंबेडकर का जन्म एक कबीरपंथी परिवार में हुआ था. कुछ लोग ये प्रश्न उठाते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने किसी दलित धर्म, जैसे आदिधर्मी, आजीवक पंथ को स्वीकार क्यों नहीं किया? या फिर उन्होंने दलितों के लिए एक नए धर्म की खोज क्यों नहीं की? उन्होंने बौद्ध धम्म ही क्यों स्वीकार किया? इसलिए इस प्रश्न का उत्तर खोजना आवश्यक है. बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश का ये 100वां वर्ष है। कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान डॉ. अंबेडकर ने अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र के साथ-साथ इतिहास, दर्शन और धर्म ग्रंथों का भी गहनता से अध्ययन किया। डॉ. अंबेडकर ने अपने शोध द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि भारत वर्ष की गुलामी, गरीबी और दुर्दशा का कारण प्रचलित जाति-व्यवस्था है, जिसके कारण हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी को समुचित विकास का अवसर नहीं मिल रहा है। डॉ. अंबेडकर ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जो समृद्ध हो, शक्तिशाली हो, विकसित हो और दुनिया में अग्रणी हो। डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जाति-व्यवस्था को तोड़े बिना भारत को समृद्ध और शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता। जाति-व्यवस्था को बनाए रखने का अर्थ है कि भारत के समृद्ध और विकसित होने में बाधा खड़ी करना। जैसे हमारा शरीर तभी शक्तिशाली बन सकता है जब शरीर का प्रत्येक अंग स्वस्थ एवं मजबूत हो। उसी तरह कोई भी देश तभी शक्तिशाली और समृद्ध हो सकता है जब उस देश के प्रत्येक नागरिक को उसकी क्षमताओं के विकास का अवसर मिले और नागरिकों के बीच भेद-भाव, ऊंच-नीच और असमानता का बर्ताव न हो ताकि प्रत्येक नागरिक राष्ट्र के विकास में अपना योगदान देने में सक्षम हो। इसलिए डॉ. अंबेडकर एक ऐसे धर्म की तलाश में थे जिसमें सब को विकास का समान अवसर मिले, जो लोगों में स्वतंत्रता, समानता, न्याय, सौहार्द और भाईचारे की भावना का विकास कर सके।

डॉ. अंबेडकर का तथागत बुद्ध की शिक्षाओं से परिचय सन् 1907 में ही हो गया था, जब उनके शिक्षक श्री केलुस्कर ने उन्हें स्वलिखित पुस्तक ‘गौतम बुद्ध की जीवनी’ भेंट की थी। लेकिन बौद्ध धम्म का गहन अध्ययन बाबासाहेब ने कोलंबिया जाने के बाद ही किया। सन्1950 में महाबोधि सोसायटी द्वारा प्रकाशित ‘महाबोधि’ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में डॉ. अंबेडकर ने लिखा था कि एक अच्छे धर्म में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का समावेश होना चाहिए। प्रचलित धर्मों में से किसी में उपरोक्त तीन गुणों में से एक गुण या दो गुण ही मिलते हैं। केवल बौद्ध धर्म में उपरोक्त तीनों गुणों का समावेश है। तथागत गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं द्वारा अहिंसा के साथ-साथ सामाजिक स्वतंत्रता, बौद्धिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता का भी आंदोलन चलाया था।

महिला सशक्तीकरण में योगदान

बुद्ध ने महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार देकर महिला सशक्तिकरण के आंदोलन की नींव रखी थी। गौतम बुद्ध ने स्त्रियों को शिक्षा पाने, भिक्षुणी बनने आदि का अधिकार दिया और उन्हें पूर्ण बौद्धिक-स्वतन्त्रता प्रदान की। डॉ. अंबेडकर इस बौद्धिक क्रांति का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, ‘बुद्ध ने स्त्रियों को प्रव्रज्या का अधिकार देकर एक साथ दो दोषों को दूर किया। एक तो उनको ज्ञानवान होने का अधिकार दिया, दूसरे उन्हें पुरुष के समान अपनी मानसिक सम्भावनाओं को अनुभव करने का हक दिया। यह एक क्रांति और भारत में नारी-स्वतन्त्रता, दोनों थी।’ प्रो. मैक्स मूलर के शब्दों में, ‘भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि बुद्ध धम्म ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और समाज के बन्धनों से ऊपर उठकर, जब मुक्त होने को मन चाहे, संन्यास का जीवन व्यतीत करने का अधिकार दिया।’   इसलिए गौतम बुद्ध द्वारा दी गई यह बौद्धिक-स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण है।

लोकतंत्र में योगदान:

बुद्ध लोकतंत्र के बहुत बड़े समर्थक थे। उनका जन्म एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में हुआ था। शाक्यों का शासन लोकतांत्रिक प्रणाली से चलता था। भिक्षु संघ का संविधान सबसे अधिक लोकतांत्रिक संविधान था। वह अन्य भिक्षुओं में से केवल एक भिक्षु थे। अधिक से अधिक वह मंत्रि-मंडल के सदस्यों के बीच एक प्रधानमंत्री के समान थे। वह तानाशाह कभी नहीं थे। उनकी मृत्यु से पहले उनको दो बार कहा गया कि वह संघ पर नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें, परंतु हर बार उन्होंने यह कह कर इंकार कर दिया कि ‘धम्म’ संघ का सर्वोच्च सेनापति है। उन्होंने तानाशाह बनने और तानाशाह नियुक्त करने से इंकार कर दिया।

गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के केन्द्र में जातिगत भेदभाव खत्म करके सामाजिक समानता की स्थापना करना था। बुद्ध ने बारंबार कहा कि जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है और न कोई शूद्र। इंसान का मूल्य उसकी जाति से नहीं, उसके कामों से आंका जाता है। उन्होंने कहा कि कर्म से ही इंसान ब्राह्मण बनता है और कर्म से ही चाण्डाल। ब्राह्मण जन्म से श्रेष्ठ होता है इस वैदिक मान्यता को बुद्ध ने पूरी तरह नकार दिया। बुद्ध का समानता का सिद्धांत लोगों के दिलों को छू जाता था। उससे उनका स्वाभिमान और आत्मसम्मान बढ़ता था तथा भौतिक जीवन जीने की प्रेरणा मिलती थी, जो कि हर इंसान की मूलभूत जरूरत है। बौद्ध धम्म पूरी तरह समतावादी है। भिक्षु और स्वयं बुद्ध भी मूलतः जीर्ण-शीर्ण वस्त्र (चीवर) पहनते थे।

भगवान बुद्ध ने प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बहुत महत्त्व दिया। विभिन्न राज्यों के राजाओं और शासन के अधिकारियों को उन्होंने सलाह दी कि कामकाज निश्चित कानून और नियमों के अनुसार चलना चाहिए। अगर नियम और कानून बदलने हों तो बाकायदा जनप्रतिनिधि सभा (जैसे आज संसद और विधानसभा है) में उस पर बहस कर वहां से मंजूर होना चाहिए। उन्होंने सलाह दी कि राज्य के विभिन्न विभागों में बराबर तालमेल होना चाहिए और परस्पर अविश्वास की स्थिति नहीं रहनी चाहिए। उनके द्वारा स्थापित भिक्खु संघ और भिक्खुणी संघ दोनों का संगठन और संचालन पूरी तरह प्रजातान्त्रिक ढंग से होता था। संघ के कायदे-कानून और उनको चलाने की प्रक्रिया से पता चलता है कि ब्रिटेन में प्रजातंत्र आने से दो हजार साल पहले बुद्ध ने भिक्खु और भिक्खुणी संघ में प्रजातंत्र की प्रणाली लागू कर दी थी। संघ की भाषा इस बात का उदाहरण है। गौतम बुद्ध चौदह भाषाओं में दक्ष थे, फिर भी उन्होंने सारे उपदेश उन दिनों की लोकभाषा पालि में ही दिए, जिससे आम जनता धम्म को समझ सके और अपने जीवन में अपना सके। बुद्ध ने भारत के इतिहास में पहली बार अभिजात वर्ग की भाषा के स्थान पर लोकभाषा को प्रतिष्ठित किया। पालि भाषा में विपुल साहित्य रचा गया, जो न केवल भारत की बल्कि सारे संसार के बौद्धों की थाती है।

हिंसा और गरीबी के बारे में उपदेश

भगवान बुद्ध ने अपने आर्थिक और राजनीतिक विचार चक्कवत्ती सिंहनाद सूत्त और कूटदन्त सूत्त में व्यक्त किए हैं। उन्होंने कहा, ‘चोरी,हिंसा, नफरत, निर्दयता जैसे अपराधों और अनैतिक कार्यों का कारण गरीबी है।’ इन अपराधों को सजा देकर नहीं रोका जा सकता है। अलवी गांव में भोजन करने के बाद गौतम बुद्ध का उपदेश शुरू होने ही वाला था कि एक किसान आ गया जो भूखा था। भगवान बुद्ध ने कहा पहले इस किसान को खाना खिलाओ उसके बाद ही उपदेश शुरू होगा। भगवान बुद्ध ने कहा, ‘भूखे आदमी का मन उपदेश सुनने में कैसे लगेगा? भूख से बड़ा कोई दुःख नहीं होता। भूख हमारे शरीर की ताकत को खत्म कर देती है, जिससे हमारी खुशी, शांति,स्वास्थ्य सभी समाप्त हो जाते हैं। हमको भूखे लोगों को कभी नहीं भूलना चाहिए। अगर हमें एक समय का खाना न मिले तो परेशानी होने लगती है, तो उन लोगों के कष्ट की कल्पना कीजिए जिनको दिनों और हफ्तों तक बराबर खाना नहीं मिलता। हमें ऐसा इन्तजाम करना चाहिए जिससे इस दुनिया में एक भी व्यक्ति को भूखा रहना न पड़े।

श्रावस्ती में कोसल नरेश प्रसेनजित को उपदेश देते हुए बुद्ध ने कहा, ‘राज्य की अर्थ-व्यवस्था और न्याय-प्रणाली सुधारो। सजा देने, जेल में रखने और शारीरिक दंड देने से अपराधों पर काबू नहीं पाया जा सकता। अपराध और हिंसा तो भूख और गरीबी के स्वाभाविक परिणाम होते हैं। अतः जनता की सहायता करने तथा उनकी सुरक्षा का सर्वोत्तम उपाय करने के लिए स्वस्थ अर्थव्यवस्था के निर्माण करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। गरीब किसानों को भोजन, बीज और खाद-उर्वरकों पर तब तक आर्थिक सहायता दी जाए जब तक वे आत्मनिर्भर न हो जाएं। छोटे व्यापारियों को पूंजी उधार दी जाए। सरकारी कर्मचारियों को पर्याप्त वेतन दिया जाए। लोगों से बेगार कराना बंद किया जाए। लोगों को अपना व्यवसाय-धंधा चुनने का अधिकार और अवसर दिया जाए। लोग जो काम करना चाहें, उनकी तकनीकी शिक्षा का इन्तजाम किया जाए। जब लोग अपने-अपने काम धन्धे में लग जाएंगे, कोई एक दूसरे को परेशान नहीं करेगा, अर्थ-व्यवस्था में सुधार आयेगा और राज्य की आमदनी बढ़ेगी। जनता में अमन-चैन और खुशहाली आयेगी। लोग बच्चों को अपनी गोद में लेकर खुशी से नाचे-गाएंगे और दरवाजे खुले छोड़कर सोएंगे।’ इस तरह बुद्ध ने कानून-व्यवस्था और अमन-चैन कायम करने के लिए भय और दण्ड का सहारा न लेकर लोगों की समस्याओं को समझकर उन्हें सुलझाने को कहा। जिससे समस्या की जड़ को समाप्त किया जा सके।

धर्मनिरपेक्षता

भगवान बुद्ध सर्वधर्म समभाव के पक्षधर थे। उन्होंने कभी अपनी शिक्षाओं की प्रशंसा को न तो जरूरत से ज्यादा महत्व दिया और न ही उसकी आलोचना करने वाले की निन्दा की। अम्बालथ्थिका में ब्रह्मजाल सुत्त का उपदेश देते हुए उन्होंने कहा, ‘भिक्खुओं, जब भी आप लोग मेरी या सद्धर्म मार्ग की आलोचना सुनें, तो उस पर न तो क्रोध करने की, न परेशान होने और न ही अमर्ष अनुभव करने की आवश्यकता है। ऐसी भावनाओं से आपकी अपनी ही हानि होगी। जब भी कोई मेरी या सद्धर्म मार्ग की प्रशंसा करे, तब भी प्रसन्न, हर्षित अथवा संतोष की भावनाएं मन में मत आने दीजिए। इनसे भी आपकी स्वयं की ही हानि होगी। इस सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण यह है कि आलोचना में क्या बात सत्य है और क्या असत्य। विश्लेषण करने से ही आप अपने अध्ययन में प्रगति कर सकोगे और साधना अभ्यास मार्ग पर आगे बढ़ सकोगे। जिन्होंने धर्म की सूक्ष्मता और मुख्य तत्वों को समझ लिया है, वे प्रशंसा के चंद शब्द ही कहेंगे, वे चेतना-जागृति के सच्चे ज्ञान को समझते हैं। ऐसा ज्ञान प्रगाढ़, सूक्ष्म और अनिर्वचनीय होता है।  भिक्खुओं इस संसार में अनगिनत दर्शन, सिद्धांत और मत हैं। लोग इन सब पर अनन्त समय तक आलोचना-प्रत्यालोचना कर सकते हैं। किन्तु मैंने इनका जो सार समझा है, उसके अनुसार मुख्य 62 सिद्धांत हैं जिनमें हजारों दर्शनों और धार्मिक मत-मतान्तरों को समाहित किया जा सकता है। चेतना जागृति और आत्म मुक्ति के मार्ग के अनुसार इन सभी सिद्धांतों में त्रुटियां हैं और उनसे बाधाएं उत्पत्र होती हैं।’

बौद्ध धम्म पूर्णरूपेण वैज्ञानिक है

बुद्ध धम्म पूर्णरुपेण वैज्ञानिक धम्म है जिसमें रूढ़िवाद और अंधविश्वास के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस प्रकार से वैज्ञानिक प्रयोग करके विश्लेषण और विभाजन करके किसी भी प्रक्रिया की तह तक जाकर निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, उसी प्रकार भगवान बुद्ध ने प्रयोग करके और जीव जगत की घटनाओं का और उनमें घटित होने वाली सच्चाइयों का विभाजन-विश्लेषण किया। अंतर केवल इतना है कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रयोगशालाओं में करते हैं जबकि भगवान बुद्ध ने सारे प्रयोग अपने शरीर, चित्त और प्रकृति की प्रयोगशाला में किए। बुद्ध ने नित्य आत्मा का खण्डन करते हुए कहा कि ‘आत्मा की चर्चा न केवल बेकार और अनुपयोगी है, बल्कि सम्यक् दृष्टि (सही ज्ञान) के विकास में बाधा भी है। आत्मा में विश्वास मिथ्या विश्वासों का घर है।‘

गृहस्थ जीवन के लिए उपदेश

भगवान बुद्ध ने सिगाल को उपदेश देते हुए कहा कि उनके धम्म में पूरब का मतलब माता-पिता, दक्षिण का मतलब गुरू और शिक्षक,पश्चिम का मतलब पत्नी और बच्चे, उत्तर का मतलब मित्र, रिश्तेदार और समाज, धरती का मतलब कर्मचारी, नौकर-चाकर और आसमान का मतलब साधु, संत महापुरुष तथा आदर्श व्यक्ति होता है। बुद्ध ने कहा कि छः दिशाओं की पूजा इस ढंग से करनी चाहिए। भगवान बुद्ध ने माता-पिता की सेवा करना सिखाया। उन्होंने किसी काल्पनिक ईश्वर को नहीं बल्कि माता-पिता को ही ब्रह्मा कहा। ‘ब्रह्मा ति मातापितरो’ बुद्धिमान आदमी को माता-पिता का उचित आदर-सत्कार करना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए। ब्रह्मा का मतलब है अनंत मैत्री, अनंत मुदिता, अनंत करुणा और अनंत उपेक्षा (समताभाव) से भरा हुआ व्यक्ति। बुद्ध ने माता-पिता को ही ब्रह्मा का दर्जा दिया। उन्होंने कहा कि माता-पिता ही जन्म देने वाले और बच्चों का पालन-पोषण करने वाले होते हैं। इसलिए हर इंसान को अपने माता-पिता का आदर और सेवा करना चाहिए, बुढापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए और उनके लिए जो भी संभव हो वह अवश्य करना चाहिए। बुद्ध ने कहा कि अपने परिवार के मान-सम्मान को अक्षुण्ण रखना चाहिए और बच्चों को अपने माता-पिता द्वारा कमाई गई संपत्ति की रक्षा करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि कोई भी इंसान दिन-रात अपने माता-पिता की सेवा करे तो भी वह उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। उनके ऋण से मुक्त होने का एक ही तरीका है कि अगर माता-पिता शीलवान नहीं हैं तो उन्हें शीलवान बनने में सहायता करें,शीलवान हैं मगर समाधि में प्रतिष्ठापित नहीं हैं तो समाधि में प्रतिष्ठापित करने में मदद करें, अगर शीलवान हैं और समाधि में प्रतिष्ठित हैं लेकिन प्रज्ञा में प्रतिष्ठित नहीं हैं तो उन्हें प्रज्ञा में प्रतिष्ठित करें।

पति और पत्नी के बीच के प्यार को उन्होंने पवित्र प्यार की संज्ञा दी। उसे सादर ब्रह्माचर्य (पवित्र गृहस्थ जीवन) कहा। उन्होंने पति और पत्नी के संबंध को सर्वोच्च सम्मान दिया। उन्होंने कहा कि पति और पत्नी एक दूसरे के विश्वासपात्र रहें, एक दूसरे का सम्मान करें, एक दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित रहें, एक दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पालन करें। उन्होंने कहा कि पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं। पति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी पत्नी के मान-सम्मान की रक्षा करे, न कभी अपमान करे, न अपमान होने दे। अनैतिक मिथ्याचार से दूर रहे। अपनी आय के हिसाब से धन-दौलत से पत्नी को संतुष्ट रखे और समय-समय पर पत्नी को वस्त्र-आभूषण का उपहार देता रहे। पत्नी का भी यह कर्त्तत्य है कि घर के कामकाज ठीक से करे, घर के कामकाज में आलस न करे, परिवार के सभी व्यक्तियों का आदर करे, रिश्तेदारों का उचित आदर-सत्कार करे, अनैतिक मिथ्याचार से दूर रहे, पति की आय की सुरक्षा करे, सतर्क और दक्ष रहे।

विश्व शांति के लिए उपदेश

गौतम बुद्ध ने युद्ध का हर सम्भव विरोध किया है। उन्होंने बार-बार कहा कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं होता है क्योंकि हर युद्ध में जन-धन की अपार हानि होती है। दुनिया में ‘धर्म युद्ध’ या ‘उचित युद्ध’ या ‘न्याय के लिए युद्ध’ जैसे शब्द को गुमराह करने और मूर्ख बनाने के लिए गढ़े गए हैं। कोई भी युद्ध उचित या न्याय के लिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि हर युद्ध (बगैर किसी अपवाद के) अपने पीछे बर्बादी और तबाही ही छोड़कर जाता है। जो शक्तिशाली हैं उनके द्वारा किया गया युद्ध उचित और जो कमजोर हैं उनके द्वारा किया गया युद्ध अनुचित? हम जो करें वह उचित, दूसरे जो करें अनुचित, यह कैसे चलेगा? इसलिए भगवान बुद्ध ने कहा कि हर राष्ट्र की विदेश नीति पंचशील और परस्पर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर आधारित होनी चाहिए।

शील सदाचार से अपने साथ-साथ दूसरे लोगों का भी कल्याण अनिवार्य रूप से होता ही है। इसीलिए यदि मनुष्य का कल्याण हो रहा है तो समाज का कल्याण होगा ही। चित्त में ब्रह्मवृत्तियां जागेंगी ही, समाधि और प्रज्ञा बलवती होगी तो दूसरों के प्रति मंगलमैत्री, करुणा और मुदिता की भावना जागेगी ही। बैर-वैमनस्य मिटेगा तो समाज में शांति बढ़ेगी ही। चित्त की सजगता और जागरूकता से हम अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनते हैं और सामाजिक आर्थिक समस्याएं गरीबी भूखमरी, रोगों से लड़ने में लोगों की मदद करने के लिए अधिक तत्पर होते हैं।

स्वतंत्र चिंतन

बौद्ध धम्म ने विचार-स्वतंत्रता और वैज्ञानिक मनोवृत्ति के लिए आवाज़ उठाकर पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया। बुद्ध ने अपने अनुभव और अपने विवेक को अपना मार्गदर्शक मानने का उपदेश देते हुए जो कालाम सुत्त में कहा:

‘हे कालामो (कालाम क्षेत्र के निवासियों को कालाम कहा जाता था)! किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परम्परा से प्राप्त हुई है। किसी बात को इसलिए मत मानो कि बहुत से लोग उसके समर्थक हैं। किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह धर्म ग्रन्थों में लिखी है। किसी बात को केवल इस लिए मत मानो कि वह तर्क शास्त्र के अनुसार है, किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि ऊपरी तौर पर वह मान्य प्रतीत होती है। किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह अपने अनुकूल प्रतीत होती है। किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि यह ऊपरी तौर पर सच्ची प्रतीत होती है। किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह किसी आदरणीय आचार्य की कही हुई है।’’

‘कालामो, किसी बात को मानने की कसौटी यह है कि स्वयं अपने से प्रश्न करो कि क्या अमुक बात का करना हितकर है? क्या अमुक बात निन्दनीय है? क्या अमुक बात विद्वजनों द्वारा निषिद्ध है? क्या अमुक बात करने से कष्ट और दुःख होता है? कालामो! इतना ही नहीं,तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि मत-विशेष, तृष्णा, मूढ़ता और द्वेष की भावना की वृद्धि में तो सहायक नहीं होता। कालामो! इतना ही नहीं, तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि मत-विशेष किसी को उसको अपनी इन्द्रियों का गुलाम तो नहीं बनाता, उसे व्यर्थ हिंसा करने में प्रवृत्त तो नहीं करता, उसे चोरी करने की प्रेरणा तो नहीं देता? उसे कामभोग सम्बन्धी मिथ्या-चार में, (व्यभिचार में) प्रवृत्त तो नहीं करता,उसे झूठ बोलने की प्ररेणा तो नहीं देता, जब तुम आत्मानुभव से यह जानो कि यह बातें अहितकर हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निषिद्ध हैं, इन बातों को करने से कष्ट होता है, दुःख होता है… हे कालामो! तब तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए।’

इसलिए कालाम सुत्त को स्वतंत्र चिंतन का प्रथम घोषणा पत्र कहा जाता है।

स्वावलंबी बनने पर जोर

बुद्ध ने कहा कि इंसान को किसी दैवी व अलौकिक शक्ति की ज़रूरत नहीं, वह अपना मालिक खुद है। यह स्वावलम्बी बनने की प्ररेणा है,जिसका सानी भारतीय इतिहास में नहीं मिलता। बुद्ध ने कहा, ‘अत्तदीप भवथ अत्त सरणा’। तुम अपने दीपक, मार्गदर्शक स्वयं बनो। अपनी शरण, अपने सहारे स्वयं बनो। तुम्हारी सहायता करने के लिए कोई ऊपर से नहीं आएगा। उन्होंने फिर कहा, ‘अत्ता हि अत्तनो नाथो। अत्ता हि अत्तनो गति।’ अपने मालिक तुम खुद हो, कोई दूसरा तुम्हारा मालिक नहीं। इस तरह स्वावलम्बी व्यक्ति भाग्य और देवी-देवताओं के भरोसे न रहकर अपनी मेहनत और शील सदाचार से अपनी मंजिल स्वयं तय करता है। यही कारण है कि बौद्ध भिक्षु सर्दी, गर्मी व दूसरी विपत्तियों की तनिक भी प्रवाह न करते हुए चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, ताईवान, लंका, थाईलैण्ड, म्यानमार, जावा, सुमात्रा आदि दूर-दूर के देशों में अकेले ही जूझते रहे, लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुए।

बौद्ध धम्म ने भारतीयों में राष्ट्रीय एकता के बीज बोए। इसने लोगों की मूल भावनाओं को प्रभावित किया। जनसाधारण इस ओर आकृष्ट हुए। परिणामस्वरूप लोग इसे ‘राष्ट्र धर्म’ मानने लगे। इससे राष्ट्र के विकास में बहुत सहयोग मिला और राजनीति एकरूपता का मार्ग प्रशस्त हुआ। यह एक संयोग ही नहीं है कि भारत के ज्ञात इतिहास में भारत का समूचा मानचित्र एक बौद्ध राजा के शासनकाल में ही उभरा। बुद्ध धम्म की इस देन का उल्लेख करते हुए विदेशी विद्वान हैवेल (HAVELL) कहते हैं, ‘बुद्ध धम्म ने भारत के जातीय बन्धनों को तोड़कर तथा उसके आध्यात्मिक वातावरण में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर करके सम्पूर्ण आर्य जाति को एकरूपता प्रदान करने में योग दिया और मार्यवंश के विशाल साम्राज्य की नींव डाली।’ बुद्ध धम्म ने ईसा के जन्म से तीन सौ वर्ष पहले भारत को दुनिया में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करके दिया है। चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, ताईवान, लंका, थाईलैण्ड, म्यानमार, जावा, सुमात्रा आदि दूर-दूर के देशों ने बुद्ध की शिक्षाओं को अपनाया। बुद्ध धम्म में ऐसा स्वाभाविक आकर्षण है कि इसे इसके परिणामस्वरूप दीक्षित विदेशी लोग भारत को तीर्थस्थान मानने लगे, क्योंकि यह देश उनके मार्गदर्शक के यहां पैदा होने से पवित्र हो चुका था। पूर्वी देशों पर प्राचीन काल में जो भारतीय संस्कृति की जबरदस्त छाप पड़ी, उसका श्रेय बुद्ध धम्म को है।

बुद्ध को अपने समय के चिकित्सा-शास्त्र का काफी ज्ञान था। इसीलिए भगवान बुद्ध को ‘महाभिषक’ भी कहा जाता है। विनय-पिटक में एक पूरा अध्याय (खन्धक) ही भैषज्य स्कन्धक (भसज्ज खन्धक) है, जिसमें बुद्ध ने दवाइयों के बारे में कहा है। उनके जीवन की ऐसी अनेक घटनाएं मिलती हैं, जिनसे पता चलता है कि उन्होंने मानसिक बीमारी और चिन्ता को दूर करने से पहले शारीरिक बीमारी को दूर करने की ओर ध्यान दिया। बुद्ध के चिकित्सा-विज्ञान पर ज़ोर देने का परिणाम यह हुआ कि हर बौद्ध विहार व मठ चिकित्सा-केन्द्र बन गया। इसी के परिणाम स्वरूप भारत में बौद्ध राजाओं ने जगह-जगह मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाए। अशोक का नाम उनमें सर्वोपरि और सर्वप्रथम है।

भारत में चिकित्सा-विज्ञान को विकसित करने का सर्वाधिक श्रेय बुद्ध धम्म को है। बुद्ध धम्म की उत्पत्ति से पहले यहां चिकित्सा टोनों-टोटकों से की जाती थी। बौद्ध काल में भारतीय चिकित्सा और शल्य विज्ञान में अद्वितीय उन्नति हुई। भारतीय संस्कृति के निष्पक्ष विद्वानों का मत है कि भारत में दवाईयों और शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में बौद्ध काल में जो असाधारण प्रगति हुई उसका कारण है बुद्ध धम्म का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत कि दुःखों को नष्ट करना है। इसलिए बौद्ध भारत में सभी विहारों में इन्सानों और पशुओं के लिए चिकित्सालय बनाए गए, बीमारियों के इलाज चट्टानों, स्तम्भों आदि पर खुदवाये गए। बुद्ध धम्म ने भारत को अपेक्षाकृत विकसित चिकित्सा-शास्त्र दिया। भारत का चिकित्सा-संबंधी सबसे पुराना और श्रेष्ठ ग्रंथ है-चरक संहिता। यह बौद्ध राजा कनिष्क के बौद्ध चिकित्सक चरक की रचना है।

बुद्ध और बुद्ध धम्म ने न केवल हमें उच्च-कोटि का दार्शनिक, कथात्मक, गद्य और पद्य साहित्य दिया बल्कि उनकी भारतीय इतिहास की तिथियों की समस्या के सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण देन हैं। प्राचीन भारत के इतिहास में बुद्ध के जन्म और महापरिनिर्वाण की तिथियां कालक्रम की गड़बड़ी के निबिड़ अन्धकार में आकाशदीप की तरह इतिहासकार का मार्गदर्शन करती हैं। बौद्ध साहित्य से बिम्बिसार के सिंहासनारोहण से पूर्व काल की पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त कई ऐसे तथ्यों पर प्रकाश डालता है। जातक कथाएं अपने युग के जीवन और विचारों की प्रेषक होने के कारण इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन जातकों द्वारा तत्कालीन समाज की धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक अवस्था का चित्र देखने को मिलता है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान डॉ।विण्टरनिट्स का कथन है,

‘जातक कथाओं का महत्त्व अमूल्य है। यह केवल इसलिए नहीं कि वे साहित्य और कला का अंश है, उनका महत्त्व तृतीय सदी ईसा पूर्व की भारतीय सभ्यता का दिग्दर्शन कराने में है।’

बुद्ध धम्म ने भारतीयों को सबसे पहले इतिहास-बोध दिया। बौद्धों ने बुद्ध के जीवन की घटनाओं, बुद्ध धम्म के विकास आदि को लिपिबद्ध किया, जिसका प्रमाण तिपिटक (पाली में त्रिपिटक) है। जो मार्ग तिपिटक ने दर्शाया उसी का अनुसरण परवर्ती टीका व भाष्यकारों ने किया। इस पद्धति ने राजनैतिक इतिहास की भी नींव डाली। भारत में बौद्ध ही सबसे पहले लोग थे, जिन्होंने इतिहास को परिवर्तन के नियम के संदर्भ में पढ़ा। इन्हीं लोगों ने भावी पीढ़ियों तक अतीत की प्राप्तियों व उपलब्धियों को पहुंचाने के उद्देश्य से सर्वप्रथम इतिहास का प्रयोग किया, जो कि मानवता को एक अद्वितीय और महत्त्व देन है।

बुद्ध धम्म के दर्शन के क्षेत्र में यह उल्लेखनीय देन है कि उसने न केवल भारत के बल्कि संसार के इतिहास में पहली बार यह उद्घोषणा की कि दर्शन का उद्देश्य हवाई बातें करना नहीं, बल्कि समाज और संसार का नवनिर्माण करना है।

डॉ. अंबेडकर के मतानुसार किसी भी अन्य धर्म संस्थापक ने बुद्ध की तुलना में जीवन के सभी पहलुओं पर इतने विस्तार से उपदेश नहीं दिए और न ही महिला और पुरूष की समानता के लिए इतना बड़ा आंदोलन चलाया। डॉ. अंबेडकर के अनुसार तथागत बुद्ध की शिक्षाएं आधुनिक हैं, उपयोगी हैं और वैज्ञानिक कसौटी पर कसी जा सकती है। बुद्ध की शिक्षाओं में अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के लिए कोई स्थान नहीं है। बुद्ध धम्म ने भारत के इतिहास में पहली बार शील और सदाचार को सही अर्थों में प्रयुक्त किया और इन्हें उचित प्रधानता दी, जिसकी सदा उतनी ही उपयोगिता है जितनी उस समय थी।’ डॉ। अंबेडकर का विश्वास था कि बौद्ध धम्म अपनाने से भारतीयों के बीच जातीय भेद-भाव की भावना समाप्त होगी, लोगों में रोटी और बेटी का संबंध बढ़ेगा जिससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। डॉ। अंबेडकर ये भी मानते थे कि बौद्ध धम्म अपनाने से लोगों के मन में व्याप्त हीन भावना समाप्त होगी, उनमें आत्म-विश्वास और आत्म-बल बढ़ेगा, जिससे वे दैवीय शक्तियों के भरोस न रहकर आत्म-सहायता के द्वारा अपना विकास करेंगे। डॉ। अंबेडकर ये भी कहते थे कि भगवान बुद्ध के कारण आज आधी से ज्यादा दुनिया भारत को अपना आध्यात्मिक गुरू मानती है। चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड,बर्मा, म्यानमार, ताईवान, कंबोडिया, मंगोलिया और श्रीलंका जैसे देशों के करोड़ों लोगों के मन में एक अभिलाषा रहती है कि एक बार बोधगया, सारनाथ, श्रावस्ती, कुशीनगर, संकीसा, सांची, नालंदा के दर्शन हो जाए।

डॉ. आबेडकर का यह मानना था कि आज के शूद्र और विशेषकर दलित पहले बौद्ध धम्म के अनुयायी थे। इसलिए बौद्ध धम्म को अपनाना धर्म परिवर्तन न होकर घर वापसी जैसा है। उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए डॉ अंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म अपनाने से भारत की अधिकतर समस्याएं हल हो जाएंगी। डॉ. अंबेडकर का मानना था कि बौद्ध धर्म अपनाकर भारत पुनः ही विश्व का आध्यात्मिक गुरू बन सकता है और दुनिया को नई राह दिखा सकता है।

(लेखक: आनंद श्रीकृष्ण बौद्ध चिंतक हैं)