.

भारत में दोहरी शिक्षा नीति कब तक? - अतुल कुमार बौद्ध

 

भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया।

प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है।

स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही भारतीय शिक्षा को लेकर अनेक जद्दोजहद चलती रही। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार केलिए अनेक प्रयास किए। यह और बात है कि इन प्रयासों की अनेक खामियाँ भी सामने आई हैं जिन्हें दूर करने का प्रयास किया जा रहा है।

बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम्तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। प्राचीन शिक्षा प्राय: वैयक्तिक ही थी। कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात्विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी। भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे। कोई एक ग्रंथ के बृहत्और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे।

मध्यकाल- इस्लामी शिक्षा

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। ब्राह्मणों ने मलेक्षों की भाषा कहकर फ़ारसी और अरबी का बहिष्कार कर दिया। तब अछूत समझे जाने वाले राजदरबारी मोची जो बाद में मुंशी कहलाये उनके बच्चों को अरबी-फ़ारसी के माध्यम से मुस्लिम शासकों ने पहली बार पढ़ाई के दरबाजे खोल दिए। पढेलिखे मोचियों ने विना पढेलिखे चर्मकारों से रोटी-बेटी का रिस्ता बंद कर दिया। पड़े लिखे मोची ही बाद में नोकरशाह बनकर उभरे और कायस्थ जाति के नाम से पहिचाने जाने लगे, आज उनमें बहुतसी उपजातियां बन गई हैं। इस काल में मुस्लिम और कायस्थ ही बड़े नौकरशाह थे ब्राह्मण बुरी तरह से पिछड़ गए थे।  बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।

मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी। सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी। अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था। दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी। हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।

राजकुमारों के लिए महलों के भीतर शिक्षा का प्रबंध था। राज्यव्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्धसंचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृहशिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। शिक्षकों का बड़ा सम्मान था। वे विद्वान्और सच्चरित्र होते थे। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी। अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी। दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुस्लिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।

हण्टर आयोग - भारतीय शिक्षा आयोग (1882)

सन 1880 में लार्ड रिपन को भारत का गवर्नर-जनरल मनोनीत किया गया था। उस समय उन्होने भारतीय शिक्षा के विषय में (1882 में) एक कमीशन गठित किया जिसे "भारतीय शिक्षा आयोग" कहा गया। सर विलियम हण्टर इसी कमीशन के सदस्य थे और इन्ही के नाम से इसे हण्टर कमीशन कहा गया।

ब्रिटिश-भारतीय सारजेंट शिक्षा योजना (1944)

भारतीय स्वतंत्रता से पहले सन् 1944  में ब्रिटिश-भारतीय सरकार द्वारा तैयार की गई एक योजना थी जिसका ध्येय भारत को 40 वर्षों के अन्दर यानि सन् 1984 तक पूर्णतः साक्षर बनाना था। इसमें शिक्षा और साक्षरता के विस्तार के मनसूबे थे जिनके परिपालन से ब्रिटिश सरकार देशभर में पाठशालाओं का जाल फैलाने और हर भारतीय को 1984 तक पढ़ा-लिखा बनाने का ज़िम्मा लेने वाली थी।

सारजेंट योजना का औपचारिक नाम 'भारत में युद्ध-उपरान्त शिक्षा विकास पर सारजेंट कमीशन की रिपोर्ट' (Report of the Sergeant Commission on Post-War Education Development in India), था। सारजेंट योजना के तहत 6 से 14 वर्षों के हर भारतीय बच्चे को अनिवार्य रूप से मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने का ज़िम्मा ब्रिटिश-भारतीय सरकार का होता। यह प्रस्ताव केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार समिति के सामने रखा गया और इसको पूरी मंज़ूरी दे दी गई।

जब प्रस्ताव के समाचार अख़बारों में आए, तो राष्ट्रवादी नेताओं ने खुलकर इसकी बहुत खिल्ली उड़ाई क्योंकि उनके अनुसार 'भारत में इतना सब्र नहीं है कि वह 40 साल तक बिना पूरा साक्षर हुए बैठ सके' यह बात और है कि स्वतंत्रता के बाद 2009 तक (यानि सारजेंट प्रस्ताव के 65 सालों बाद) भी नॉवल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्यसेन को कहना पड़ा कि 'देश अभी भी आधा अनपढ़ है, दो-तिहाई स्त्रियाँ अनपढ़ हैं' सन् 2008 तक भारतीय साक्षरता स्तर केवल 65% पहुँचा था और हर वर्ष केवल 1.5% की 'धीमी गति' पर बढ़ रहा था।

भारतीय संविधान के चौथे भाग में उल्लिखित नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाय। 1948 में डॉ॰ राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था। 1952 में लक्ष्मीस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग, तथा 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुशंशाओं के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव प्रकाशित किया गया जिसमेंराष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशलयुवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया। मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई, जो अब तक चल रही है। इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति, तथा 1993 में प्रो. यशपाल समिति का गठन किया गया।

भेदभाव मुक्त प्राथमिक शिक्षा की जरूरत

समाज के स्वभिमानी लोग आज कई प्रकार की लड़ाईयां  लड रहें हैं, लड़ाई चाहे मनुवाद की हो या ब्राहमणवाद की हो, प्रत्येक संगठन अपने अपने क्षेत्र में इस विषमतावादी व्यवस्था को बदलने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। देश में फैली  बुराईयां बहुजन समाज के लोगों  को विरासत में मिली हैं।  क्योंकि, इन बुराईयों का आमना सामना इस देश के गरीब, दलित, शोसित, समाज के साथ अकसर होता रहता है। स्कूल में गऐ तो छुआछूत, भेदभाव जैसी अनेकों बीमारियों से समाज आज भी जूझ रहा है। लेकिन ये लडाई अभी खत्म होने वाली नही है। इस देश के गरीब,दलित अति पिछड़े लोगों  की कई मूल समस्या में से एक समस्या दोहरी शिक्षा नीति की भी है। आज भी इस देश के 90% गरीब दलितों के बच्चे न्यूनतम शिक्षा स्तर से नीचे हैं। आज जो लोग पैसे से संपन्न हैं, उनके बच्चे तो कान्वेंट स्कूलों में पड़ते हैं लेकिन गरीब बच्चे आज भी शिक्षा के लिए मोहताज हैं।  सरकारी स्कूलों का हाल सभी लोग जानते ही हैं, जहाँ पढ़ाई की जगह हाथों में कटोरा थमा दिया जाता है। कोई भी समाज अशिक्षित होगा, उस समाज का विकास कभी नही हो सकता। सरकार सिर्फ बच्चों को साक्षर करना चाहती हैउच्च शिक्षा तक पहुँचने ही नहीं देना चाहती, क्योकि यदि गरीबों के बच्चे शिक्षित हो गए तो इनकी राजनीति पर ताला लग जाएगा। आज गरीब एक शराब के पऊआ पर बिक जाता है।

यदि हमारे गरीब लोग वास्तव में बाबा साहेब का सपना (शिक्षित करो) पूरा करना चाहते हैं, तो अपनी बर्वादी की मूल समस्या पर ध्यान देना होगा, तभी सही मायने में इस समाज का भला हो सकेगा। इस देश में प्राथमिक शिक्षा का राष्ट्रीयकरण के साथ एकरूपीकरण करवाना होगा। तभी पक्का समतावादी समाजवाद स्थापित होगा। जब सभी जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों, जजों, कलेक्टर-एसपी सहित तमाम नोकरशाहों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों एवम पूंजीपतियों इत्यादि के बच्चों के साथ गरीबों एवं गंवारों का बच्चा भी पढ़ेगा।

शिक्षा के निजीकरण पर रोक

निजीकरण, व्यापारीकरण तथा व्यवसायीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है। मण्डी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन (Capitationfee) देकर खरीदा जा सकता है। परिणामत: शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है जो धन के आधार पर आई.आई.टी, एम.बी.., सी.. एम.बी.बी.एस आदि उपाधियों के लिये प्रवेश पा कर उच्च भावना से ग्रस्त ओैर धनाभाव के कारण प्रवेश से वंचित हीनभावना से ग्रस्त रहते है। दोनो ही श्रेणियों के छात्र ग्रस्त है। असमानता की खाई बढ़ रही है। सामाजिक असंतुलन और विषमता इस का ही परिणाम है।

सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी विषयों की उपेक्षा करना देश की उन्नति कें लिए हानिकारक है, और साथ ही इस दृष्टि से शोध को भी दुर्लक्ष करना और भी घातक है। पारम्परिक ज्ञान की ओर ध्यान देना और शिक्षा को बाजारीकरण की शक्तियों के आधीन करना देश के लिए खतरनाक है।

बाजारवादी नुस्खों में कई निहितार्थ छिपे है। एक तो यह सरकार ने मान लिया है कि देश के सभी बच्चों को शिक्षित करने का काम उसी का नहीं है। शिक्षा को बाजार का उन्मुक्त स्वरुप देने में क्रय-विक्रय की क्षमता रखने वाले छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। शेष के लिए नहीं।

शिक्षा के अधिकार पर धन और बल का अधिकार रहेगा, भेदभाव बढ़ेगा। स्पष्ट है निजीकरण के माध्यम से कभी भी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोचिंग के बाजार में कई घटिया, गैरमान्यता प्राप्त, फर्जी शिक्षा की दुकानें खुलती जा रही हैं। इन सबको रोकना बहुत बड़ी चुनौती है। देश में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय हैं, इनके 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान है। इन्होंने उच्च शिक्षा को मुनाफे का धन्धा बना दिया है। आन्धप्रदेश में 600 से अधिक निजी इन्जीनियरिंग महाविद्यालय, कर्नाटक में यह संख्या 170 है, उड़ीसा में 81, राजस्थान में 80 है। इस परिदृश्य से जो स्थिति उपस्थित हुई, इस कारण आर्थिक सामाजिक आधार पर भी शिक्षा विभाजित हुई है।

यूनेस्को की एक रिपोर्ट

यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा कार्य बहुआयामीय, वैश्विक, राष्ट्रीय तथा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के चक्के को हाथ लगाना है। रिपोर्ट 2001 के पृष्ठ क्रमांक 2 में कहा गया है विश्व के विकास की कार्य सूची में सभी विषयों जैसे निर्धनता उन्मूलन, स्वास्थ्य संरक्षण, तकनीकी जानकारी का आदान-प्रदान, पर्यावरण का रक्षण, लिंगभेद समापन, प्रजातान्त्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करना तथा शासन-प्रशासन में सुधार, सब के लिये न्याय सुलभता, शिक्षा के माध्यम से इन सभी विषयों को एकात्मक भाव से देखा जाना चाहिए।

वर्तमान प्राथमिक शिक्षा की खामियां

प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार का दायित्व है। संविधान के अनुच्छेद 41 से 45 में नीति निर्देशक सिद्धान्तों में शामिल की गयी चूंकि पूंजीवादी तथा ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले लोग जिनकी सत्ता में- प्रमुखता रही है जिसके कारण देश में प्रारम्भ से ही प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में दोहरी शिक्षा नीति लागू कर दी। जिसका परिणाम है कि मूल निवासी बहुजनों के 80 प्रतिशत बच्चे खस्ताहाल सरकारी स्कूलों में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करते हैं। जबकि अन्य बच्चे जो उच्च वर्गीय हैं या जिनकी देश में प्रभुसत्ता रही है। वे विदेशों में या महंगे स्कूलों (अंग्रेजी माध्यमों) में शिक्षा ग्रहण करते हैं।

शिक्षा अधिकार कानून 2009: मुख्य प्रावधान

1.         6 से 14 साल के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगी।

2.         निजी स्कूलों को 6 से 14 साल तक के 25 प्रतिशत गरीब बच्चे मुफ्त पढ़ाने होंगे। इन बच्चों से फीस वसूलने पर दस गुना जुर्माना होगा। शर्त नहीं मानने पर मान्यता रद्द हो सकती है। मान्यता निरस्त होने पर स्कूल चलाया तो एक लाख और इसके बाद रोजाना 10 हजार जुर्माना लगाया जायेगा।

3.         विकलांग बच्चों के लिए मुफ़्त शिक्षा के लिए उम्र बढ़ाकर 18 साल रखी गई है।

4.         बच्चों को मुफ़्त शिक्षा मुहैया कराना राज्य और केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी होगी।

5.         इस विधेयक में दस अहम लक्ष्यों को पूरा करने की बात कही गई है। इसमें मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने, शिक्षा मुहैया कराने का दायित्व राज्य सरकार पर होने, स्कूल पाठ्यक्रम देश के संविधान की दिशानिर्देशों के अनुरूप और सामाजिक ज़िम्मेदारी पर केंद्रित होने और एडमिशन प्रक्रिया में लालफ़ीताशाही कम करना शामिल है।

6.         प्रवेश के समय कई स्कूल केपिटेशन फ़ीस की मांग करते हैं और बच्चों और माता-पिता को इंटरव्यू की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। एडमिशन की इस प्रक्रिया को बदलने का वादा भी इस विधेयक में किया गया है। बच्चों की स्क्रीनिंग और अभिभावकों की परीक्षा लेने पर 25 हजार का जुर्माना। दोहराने पर जुर्माना 50 हजार।

7.         शिक्षक ट्यूशन नहीं पढ़ाएंगे।

इस विधेयक की कमियाँ एवं आलोचना

1.         मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा से जरूरी है समान शिक्षा - अच्छा होता कि सरकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल लाने पर जोर देने के बजाय कॉमन स्कूल का बिल लाने पर ध्यान केंद्रित करती। सरकार यह क्यों नहीं घोषणा करती कि देश का हर बच्चा एक ही तरह के स्कूल में जाएगा और पूरे देश में एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा।

2.         मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के तहत सिर्फ 25 फीसदी सीटों पर ही समाज के कमजोर वर्ग के छात्रों को दाखिला मिलेगा। यानि शिक्षा के जरिये समाज में गैर-बराबरी पाटने का जो महान सपना देखा जाता वह अब भी पूरा नहीं होगा।

3.         मुफ्त शिक्षा की बात महज धोखा है, क्योंकि इसके लिए बजट प्रावधान का जिक्र विधेयक में नहीं है।

4.         विधेयक में छः साल तक के 17 करोड़ बच्चों की कोई बात नहीं कही गई है। संविधान में छः साल तक के बच्चों को संतुलित आहार, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा का जो अधिकार दिया गया है, वह इस विधेयक के जरिए छीन लिया गया है।

5.         इस विधेयक में लिखा है कि किसी भी बच्चे को ऐसी कोई फीस नहीं देनी होगी, जो उसको आठ साल तक प्रारंभिक शिक्षा देने से रोक दे। इस घुमावदार भाषा का शिक्षा के विभिन्ना स्तरों मनमाने ढंग से उपयोग किया जाएगा।

6.         इस कानून का क्रियान्वन कैसे होगा, यह स्पष्ट नहीं है। नि:शुल्क शिक्षा को फीस तक परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसमें शिक्षण सामग्री से लेकर सम्पूर्ण शिक्षा है या नहीं, यह देखना होगा।

समाधान

1.     प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीयकरण से इस देश का विकास संभव

शिक्षा पर मुनाफा कमाने पर रोक, धनवान तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े सभी छात्रों के लिए अच्छी शिक्षा दिलाने का संकल्प, शिक्षा इन सबको स्वीकार करे। राजनीति की चेरी बने रहने से इसे छुटकारा मिले। शिक्षा बाजार नहीं अपितु मानव मन को तैयार करने का उदात्ता सांचा है। जितनी जल्दी हम इस तथ्य को समझेंगे उतना ही शिक्षा का भला होगा।

2.     समान स्तरीय-एकरूप शिक्षा प्रणाली एक समाधान

भारत के शिक्षा परिवर्तन के सम्बन्ध में राष्ट्रीय समग्र विकास संघ चाहता है, कि समाज के अमीर तथा और गरीब परिवारों के बच्चों को मुफ्त तथा समान स्तरीय प्राइमरी और स्कूल लेविल की शिक्षा प्रदान हो। जिसमें दोहरी शिक्षा प्रणाली का अंत किया जाए तथा प्राइवेट स्कूलों को सरकार अपने अधीन लेकर उक्त नियम को लागू करे। इस दिशा में देश के हर बच्चे को पढ़ने का मौलिक अधिकार प्राप्त हो जिसमें नर्सरी से स्कूल तक की सामान स्तरीय शिक्षा की गारंटी सरकार दें।

 

सर्व शिक्षा अभियान का सपना समान (यूनिफार्म) शिक्षा के विना अधूरा है, जो राष्ट्रीयकरण की नीति के माध्यम से ही सम्भव है। इन सभी विषयों पर सामाजिक सहमति बनना जरुरी है इस विषय पर समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को विचार करना होगा, तथा गरीब और अमीर सभी को सामान स्तरीय शिक्षा व्यवस्था कराने हेतु सरकार पर दबाव बनाना होगा। आइये हम सभी देशवासी समाज और देश हित मैं अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर समाज के उत्थान की सोच बनाएं, पुनर्जागरण का अभियान चला कर राष्ट्र के कमजोर भाइयों को मजबूती प्रदान करने में योगदान करें।राष्ट्रीय समग्र विकास संघभारत में इस दिशा में काम कर रहा है, जिसे आप सभी के सहयोग की अपेक्षा है।

प्रस्तुति: अतुल कुमार बौद्ध- सामाजिक कार्यकर्ता