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रोशनी दिवाली से नहीं मन के दिये जलाने से होगी

आपको अपना दिया खुद जलाना होगा

बौद्ध दर्शन का एक सूत्र वाक्य है ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनो। भगवान, भाग्य या किसी अन्य व्यक्ति से उम्मीद करने की बजाये अपना प्रकाश (प्रेरणा) खुद बनो। स्वयं को प्रज्ञा की बाती से प्रकाशदीप बना कर दूसरों को भी प्रकाश (ज्ञान) बांटना ही धम्म है। तुम्हारे जान लेने से पूरा काम नहीं हुआ, दूसरों को भी जानकार बनाना आपका काम है। यही कर्तव्य पथ है जिस पर रोज चलना है जीवनभर चलना है। आपको सुख और आनंद का अनुभव होगा।

बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द ने पूंछा "भगवन जब सत्य का मार्ग दिखाने वाला आप जैसा कोई पृथ्वी पर नहीं होगा तब हम कैसे अपने जीवन को दिशा दे सकेंगे? बुद्ध ने कहा– “अप्प दीपो भव” अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो कोई दूसरा आपके पथ को सदैव प्रशस्त नहीं कर सकता, केवल अपने ज्ञान और अंतर्दृष्टि से ही हम सद्मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।

बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाना। तुम अगर लंगड़े हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल लिए- तो कितनी दूर चलोगे? मंजिल तक नहीं पहुंच पाओगे। आज मैं साथ हूं, कल मैं साथ नहीं रहूंगा, फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना है। मेरी रोशनी से थोड़ी दूर एक अंधेरे जंगल में चल सकते हो, फिर हम दोनों के रास्ते अलग हो जाएंगे तब मेरी रोशनी मेरे साथ होगी और तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। इसलिए अपने अंतर्मन में रोशनी पैदा करो जो हमेशा आपके साथ रहे यही अप्प दीपो भव! का सार है।

अप्प दीपो भव: जिसने देखा, उसने जाना। जिसने जाना, वो पा गया । जिसने पाया, वो बदल गया। अगर नहीं बदला, तो समझो कि उसके जानने में ही कोई खोट थी।

बुद्ध ने जाना तो बुद्ध पहुचेंगे तुम नहीं, तुम बुद्ध की पूजा करने से नहीं पहुचोगे न ही किसी अन्य की पूजा करने से या चेला बनने से, तुम खुद जानोगे तभी तुम पहुचोगे।

भारत वर्ष में बुद्ध का विरोध क्यों हुआ? इसलिए, क्योंकि उन्होंने पौराणिक और ब्राह्माणवादी मान्यताओं को खारिज कर दिया। यदि संसार में किसी ने सबसे पहले यह सवाल उठाया कि मनुष्यों में उच्च निम्न जातियां क्यों है? तो यह काम केवल बुद्ध ने किया है। बुद्ध ने ईश्वर के होने या न होने के प्रश्न को गैरजरूरी बताया है। इश्वर पर निर्भर न रहकर अपना रास्ता खुद बनाने की शिक्षा दी है। बुद्ध के अनुसार धर्म का अर्थ ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, नर्क, परलोक जैसा कुछ नही होता? बुद्ध ने वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास करने के लिए कहा और ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, नर्क, परलोक, भाग्य के अस्तित्व को ही नकार दिया।

संसार भर के इतिहास में बुद्ध एक मात्र ऐसे धम्म प्रचारक है जो व्यक्ति को तर्क और विज्ञान के विपरीत किसी भी बात में विश्वास करने से रोकते है। बुद्ध कहते है, जिसे ईश्वर कहते है उससे मेरा कोई लेना देना (सम्बन्ध ) नही है। किसी बात को केवल इसलिए स्वीकार मत करो क्योकि मैंने इसे करने को कहा हैI प्रत्येक बात अपनी तर्कबुद्धि से परखो, अन्यथा तुम तर्कशक्ति वाले मनुष्य नही हो। बुद्ध के धम्म जैसी स्वतंत्रता किसी भी अन्य धर्म ने नही दी है। बुद्ध ने स्वयं को मार्ग दर्शक कहा है और कभी भी अपने को विशेष दर्जा नही दिया। बुद्ध धम्म में नैतिकता पर ज्यादा जोर दिया गया है जबकि अन्य धर्मों में ईश्वर पर। बुद्ध धम्म में नैतिकता को ही ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया गया है। बुद्ध ने कहा "अत् दीप भव्" अर्थात अपना प्रकाश या मर्गदाता खुद बनो।

राजा को संदेश

कूटदंत सुत्त में बुद्ध ने शासकों को शिक्षा दी कि नवयुवकों के लिए रोजगार के साधन ढूंढे जाएं, उनको रोजगार लायक शिक्षा दी जाए, छोटे व्यापारियों को आसान दरों पर पूँजी दी जाए, किसानों के लिए अच्छी और उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक और सिंचाई के साधनों की व्यवस्था की जाए। उनकी उपज का सही मूल्य दिया जाए। इस तरह अगर गरीबी और बेरोजगारी दूर कर दी जाए तो कोई हिंसा नहीं करेगा, चोरी और बेईमानी नहीं करेगा, कानून-व्यवस्था अच्छी होगी। सबको समुचित विकास का अवसर मिलेगा तो देश समृद्ध होगा। किसी को सीधे भोजन देने से उसका पेट कुछ देर को भरेगा पर उसे आत्मनिर्भर बनाने से वो न केवल खुद का पेट भरेगा बल्कि परिवार और सारे देश का भला करेगा।

आप सोचिए कि उस जमाने में कोई आदमी चोरी और बेईमानी रोकने के लिए रोजगार देने की सलाह दे रहा था और पाप-पुण्य या लोक-परलोक जैसी बातें नहीं कह रहा था। बुद्ध ने धर्म और अध्यात्म को आत्मा-परमात्मा के रहस्य से निकाल कर उसे वास्तविकता से जोड़ा, देवी-देवताओं और कर्मकांड की जगह सामाजिक जीवन के मूल्यों का महत्व समझाया। सम्राट अशोक ने बुद्ध की इन्हीं शिक्षाओं को अपने शासन काल में लागू किया और भारत सोने की चिड़िया बन गया। उनके शासन काल को भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है। भारतीय समाज को यदि फिर उस ऊँचाई तक पहुँचना है तो एक बार फिर बुद्ध की शिक्षाओं को जीवन में उतारने की जरूरत है।

मै बुद्ध हूं अवतार और भगवान नहीं

भगवान बुद्ध की सबसे महत्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने विश्व को मार्ग दिखाया कि वे स्वयं भी अन्य लोगों की तरह एक गृहस्थ थे। वे कहीं से अवतरित नहीं हुए थे। उनका जन्म, विवाह और गृहस्थ जीवन सामान्य और प्राकृतिक था। उन्होंने सिखाया कि कैसे एक सामान्य व्यक्ति भी अपनी साधना, त्याग और दृढ़ निश्चय से उस ऊंचाई तक पहुँच सकता है। इसके लिए किसी वरदान या किसी दैवी शक्ति की आवश्यकता नहीं है।

शील-सदाचार के जीवन का उपदेश देते हुए 45 वर्षों तक बुद्ध गाँवों-कस्बों में जाकर लोगों को आनंदमय जीवन जीने की कला सिखाते रहे। उन्होंने हर वर्ग और उम्र के लोगों को सदाचार का जीवन जीना सिखाया, जिससे समतामूलक समाज की स्थापना हो और सब लोग परस्पर प्रेम और भाईचारे का जीवन जियें।

मध्यमार्ग का संदेश

बुद्धने कहा: ‘दो अतियों से बचना चाहिए। पहली है काम भोगों में लिप्त रहने की इच्छा, जो कमजोर बनाने वाली है। दूसरी है खुद को पीड़ा देने की प्रवृत्ति, जो दुखद और बेकार है। उन्होंने कहा, हमारा मन व शरीर हमेशा बाहरी घटनाओं से प्रतिक्रिया करते हैं। अवचेतन मन लगातार राग-द्वेष जगाता रहता है और वैसे ही संस्कार भी बनाता रहता है। ये संस्कार तीन प्रकार के बनते हैं- 

पहले प्रकार के संस्कार पानी पर खींची हुई लकीर के समान होते हैं। वे बनते ही मिट जाते हैं। 

दूसरे प्रकार के संस्कार बालू पर खींची हुई लकीर जैसे होते हैं, जिन्हें मिटने में थोड़ा समय लगता है। 

तीसरे किस्म के संस्कार पत्थर पर खींची हुई लकीर के समान होते हैं, जो अंतर्मन की गहराइयों तक बस जाते हैं और जिन्हें समाप्त होने में बहुत लंबा समय लगता है। 

अज्ञान के कारण हम इनके प्रति अनजाने में ही लगाव या मोह पैदा कर लेते हैं और मन उन्हीं में गोता लगाता रहता है।

बुद्धने कहा: सारे दुख हमारी इस साढेतीन हाथ की काया और चित्त में घटित हो रहे हैं। सब कुछ परिवर्तनशील है, कुछ भी स्थायी नहीं है। जीवन की अनित्यता दुख का कारण है। दुख सिर्फ बीमारी, बुढ़ापा या मृत्यु से ही नहीं है, बल्कि दिन-प्रतिदिन की विफलताओं, कुंठाओं और अभाओं से भी उत्पन्न हो रहा है। उन्होंने चार 'आर्य सत्य' और आठ 'आष्टांगिक मार्ग' बताए, जिन पर चलकर कोई भी इंसान 'बुद्धत्व' प्राप्त कर सकता है। बुद्धत्व का मार्ग सबके लिए खुला है। हर इंसान के भीतर बुद्धत्व का अंकुर मौजूद है। बुद्ध ने अपना गुरु स्वयं बनकर अपना मार्ग खोजा। आप भी खोजो।

इसी अनुभव के आधार पर उन्होंने सबको कहा "अप्प दीपो भव"।

-के सी पिप्पल, संस्थापक RSVS