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आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज की 148वीं जयंती पर विशेष

आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज की 148वीं जयंती पर विशेष 

-ले. कर्नल आर एल राम (से.नि.)

 

26 जून 1874- 6 मई 1922

जाति आधारित समाज में एक विशेष जाति ने तो इतने अधिकार प्राप्त कर लिए हैं कि शिक्षा, शासन, प्रशासन, संस्कृति और आर्थिक संसाधन लगभग उनके अधिपत्य या नियंत्रण में हैं। परिणाम स्वरूप दूसरी तरफ 90 फीसदी आबादी साधन विहीन वर्ग का निर्माण करती है जो विशेषाधिकार वर्ग की मेहरबानी पर जीवित है। इस घोर अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति ने असमानता पर आधारित जाति की संस्कृति का निर्माण किया है। इस किले को ध्वस्त करने के लिए समानता की संस्कृति के निर्माता छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपनी कोल्हापुर रियासतमें 26 जुलाई 1902 को शुद्रातिशूद्र जातियों को शासन, प्रशासन, सेना और शिक्षा में 50 फीसदी आरक्षण देकर भारत में सामाजिक न्याय के सिद्धांत की आधारशिला रखी।

छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 26 जून, 1874 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीमंत जयसिंह राव आबासाहब घाटगे था। छत्रपति शाहूजी महाराज का बचपन का नाम 'यशवंतराव' था। छत्रपति शिवाजी महाराज (प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी चतुर्थ कोल्हापुर में राज्य करते थे। ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राह्मण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी चतुर्थ का कत्ल हुआ तो उनकी विधवा आनंदीबाई ने अपने जागीरदार जयसिंह राव आबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को मार्च, 1884 ई. में गोद ले लिया। बाल्य-अवस्था में ही यशवंतराव को शाहूजी महाराज की हैसियत से कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी को सम्भालना पड़ा। यद्यपि राज्य का नियंत्रण उनके हाथ में काफ़ी समय बाद अर्थात 2 अप्रैल, सन 1894 में आया था। छत्रपति शाहूजी महाराज का विवाह बड़ौदा के मराठा सरदार खानवीकर की बेटी लक्ष्मीबाई से हुआ था।

फुले की संकल्पना का क्रियान्वयन

वर्ण-विधान के अनुसार शहूजी शूद्र थे। वे बचपन से ही शिक्षा व कौशल में निपुर्ण थे। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् उन्होने भारत भ्रमण किया। यद्यपि वे कोल्हापुर के महाराज थे परन्तु इसके बावजूद उन्हें भी भारत भ्रमण के दौरान जातिवाद के विष को पीना पड़ा। नासिक, काशी व प्रयाग सभी स्थानों पर उन्हें रूढ़ीवादी ढोंगी ब्राम्हणो का सामना करना करना पड़ा। वे शाहूजी महाराज को कर्मकांड के लिए विवश करना चाहते थे परंतु शाहूजी ने इंकार कर दिया।

समाज के एक वर्ग का दूसरे वर्ग के द्वारा जाति के आधार पर किया जा रहा अत्याचार को देख शाहूजी महाराज ने न केवल इसका विरोध किया बल्कि दलित उद्धार योजनाए बनाकर उन्हें अमल में भी लाए। लन्दन में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह के पश्चात् शाहूजी जब भारत वापस लौटे तब भी ब्राह्मणो ने धर्म के आधार पर विभिन्न आरोप उन पर लगाए और यह प्रचारित किया गया की समुद्र पार किया है और वे अपवित्र हो गए है

शाहूजी महाराज की ये सोच थी कि शासन स्वयं शक्तिशाली बन जाएगा यदि समाज के सभी वर्ग के लोगों की इसमें हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अतिशूद्र (दलित) व शूद्र (पिछड़े) वर्ग के लिए 50 प्रतिशत का आरक्षण सरकारी नौकरियों में दिया। उन्होंने कोल्हापुर में शुद्रों के लिए शिक्षा संस्थाओ की शृंखला खड़ी कर दी। शुद्रातिशुदों में शिक्षा के प्रसार के लिए एक कमेटी का गठन किया। शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए छात्रवृति व पुरस्कार की व्यवस्था भी करवाई।

यद्यपि शाहूजी एक राजा थे परन्तु उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक समाजसेवक के रूप में जनसाधारण के लिए समर्पित किया। समाज के दबे-कुचले वर्ग के उत्थान के लिए कई कल्याणकारी योजनाएँ चलाईं। उन्होंने देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बंधुआ मजदूर प्रथा को समाप्त किया। विधवा विवाह को मान्यता प्रदान की और नारी शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते हुए शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार पर डाली। मन्दिरों, नदियों, कुओं, तालाबों और अन्य सार्वजानिक स्थानों को सबके इस्तेमाल करने के लिए खोल दिया गया। शाहूजी महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर को उच्च शिक्षा पूरी करने के लिए सरकारी स्कालरशिप देकर विदेश भेजा। उनके अध्ययन व सामाजिक कार्यो के लिए कई बार आर्थिक मदद भी की। शाहूजी महाराज के क्रांतिकारी कार्यो के प्रशंसा करते हुए डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहा था की वह सामाजिक लोकतंत्र के जनक हैं। शाहू जी महाराज के मन में दलित वर्ग के प्रति गहरा लगाव था। शाहूजी महाराज 'ज्योतिबा फुले' से बहुत प्रभावित थे, वे लंबे समय तक फुले द्वारा स्थापित संस्था 'सत्य शोधक समाज', के संरक्षक भी रहे।

अछूतों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष प्रथाओं का खात्मा किया।

1917 में उन्होंने पहली बार 'बलूतदारी' प्रथा का अंत किया। इसके तहत किसी अछूत को थोड़ी सी जमीन देकर उससे और उसके परिवार वालों से पूरा गांव मुफ्त सेवाएं लेता था। 

इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा 'वतनदारी’ का भी अंत किया। भूमि सुधार कानूनों के द्वारा उन्होंने महारों को भू-स्वामी बनने का हक दिया।

सन 1902 में शाहू जी महाराज ने एक ऐतिहासिक आदेश जारी करके कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पदों/स्थानों को पिछड़ी जातियों और दलितों के लिए आरक्षित कर दिया।

शिक्षा

शाहूजी महाराज की शिक्षा राजकोट के 'राजकुमार महाविद्यालय' और धारवाड़ में हुई थी। वे 1894 ई. में कोल्हापुर रियासत के राजा बने। उन्होंने देखा कि जातिवाद के कारण समाज का एक वर्ग पिस रहा है। अतः उन्होंने दलितों के उद्धार के लिए योजना बनाई और उस पर अमल आरंभ किया। छत्रपति शाहूजी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रसार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। परन्तु उच्च वर्ग के लोगों ने इसका विरोध किया। वे छत्रपति शाहूजी महाराज को अपना शत्रु समझने लगे। उनके पुरोहित तक ने यह कह दिया कि- "आप शूद्र हैं और एक शूद्र राजा को वेद के मंत्र सुनने का अधिकार नहीं है।“ छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस सारे अपमान का डट कर सामना किया। उन्होंने अपना अपमान पूरे शूद्र वर्ग का अपमान समझ कर योजनाबद्ध तरीके से उनके सम्मान को बढ़ाया।

पिछड़े वर्ग की शिक्षा के लिए रचनात्मक कार्य: छत्रपति शाहूजी महाराज राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले के सिद्धांतों के पुरजोर समर्थक थे। उन्होंने यह महसूस किया कि शिक्षा के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन निरर्थक है, क्योंकि वह स्थाई नहीं होगा। आधुनिक शिक्षा ही उनका उद्धार कर सकती है। वे मानते थे की आवास, शिक्षा और न्याय पर सब का समान अधिकार होना चाहिए। शिक्षा को महत्व देते हुए उन्होंने अपने राज्य में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था लागू की थी। 

फरवरी 1908 में शाहूजी महाराज ने अछूतों की शिक्षा में उन्नति के लिए एक शिक्षा समिति का गठन किया। कोल्हापुर स्टेट के अछूतों में व्यापक स्तर तक शिक्षा का प्रचार प्रसार हो इसलिए राव बहादुर सबनीस की अध्यक्षता में एक एजुकेशन सोसायटी (शिक्षा समिति) का गठन किया, जिसमें जी के कदम और ए बी ओल्कर सचिव बनाए गए। शाहूजी महाराज को यह बात भली भांति याद थी कि जब तक भारत के पिछड़े वर्ग को शिक्षित नहीं किया जाएगा तब तक कोई भी राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक सुधार प्रभावशाली और वास्तविक नहीं हो सकता। उन्होंने सभी को सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रभावशाली कदम उठाएं, जिसमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

1. पिछड़े वर्गों में शिक्षा के प्रति लगाव पैदा करने के लिए कई कई रियायतें एवं स्कालरशिप जारी किए तथा पुरस्कारों का प्रावधान भी किया।

2. नए शिक्षण संस्थानों का निर्माण किया एवं पूर्ववत शिक्षण संस्थानों को उच्च संस्थानों में परिवर्तित करने के लिए आर्थिक मदद दी गई। तकनीकी शिक्षा के लिए टेक्निकल स्कूल एवं स्वास्थ्य शिक्षा के लिए चिकित्सा प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई, जिसमें महिलाओं के प्रवेश के लिए विशेष सुविधा प्रदान की गई। उच्च शिक्षा में महिलाओं के लिए मुफ्त सेवा प्रदान की गई। 

3. सवर्णों और अछूतों के प्रथक स्कूलों को बंद करवा कर सभी के लिए सार्वजनिक स्कूलों के दरवाजे खोल दिए गए। 

4. अधिकतर अध्यापन कार्य एक विशेष जाति ब्राह्मण के कब्जे में था। जो कि एक वंशानुगत पेशा बन गया था। इस पर प्रतिबंध लगाकर, नई वेतन भोगी पद्धति लागू की गई; जिसमें गैर ब्राह्मण भी अध्यापक बन सकते थे। साथ ही शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने के लिए अध्यापकों की नियुक्ति हेतु परीक्षा प्रणाली की व्यवस्था लागू की गई।

5. सन 1913 में साहू जी महाराज ने एक आदेश पारित किया, जिसमें यह व्यवस्था की गई कि राज्य के प्रत्येक गांव में एक स्कूल होगा जो उस गांव की बहुतसंख्यक जाति के लोगों द्वारा संचालित होगा। इसके लिए ₹100000 अनुदान के रूप में दिए  जाने का प्रावधान थर। इसकी उचित देखरेख के लिए "मेहरबान पीराजी राव" के नेतृत्व में एक कमेटी का भी गठन किया गया था।

स्कूलों व छात्रावासों की स्थापना: मंत्री ब्राह्मण हो और राजा भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन राजा की कुर्सी पर वैश्य या फिर शूद्र शख्स बैठा हो तो दिक्कत होती थी। छत्रपति शाहूजी महाराज क्षत्रिय नहीं, शूद्र मानी गयी कुर्मी से आते थे। कोल्हापुर रियासत के शासन-प्रशासन में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नि:संदेह उनकी अभिनव पहल थी। छत्रपति शाहूजी महाराज ने सिर्फ यही नहीं किया, अपितु उन्होंने पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों मराठा, महार, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ईसाई, मुस्लिम और जैन सभी के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएँ खोलने की पहल की। शाहूजी महाराज ने उनके लिए स्कूल और छात्रावास खोलने के आदेश जारी किये। जातियों के आधार पर स्कूल और छात्रावास असहज लग सकते हैं, किंतु नि:संदेह यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं। उन्होंने दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रयास किये थे। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। शाहूजी महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाले पिछड़ी जातियों के लड़के-लड़कियों की संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। कोल्हापुर के महाराजा के तौर पर शाहूजी महाराज ने सभी जाति और वर्गों के लिए काम किया। उन्होंने 'प्रार्थना समाज' के लिए भी काफ़ी काम किया था। 'राजाराम कॉलेज' का प्रबंधन उन्होंने 'प्रार्थना समाज' को दिया था।

अपमान का कड़वा घूंट 

शाहूजी महाराज हर दिन बड़े सबेरे ही पास की नदी में स्नान करने जाया करते थे। परम्परा से चली आ रही प्रथा के अनुसार, इस दौरान ब्राह्मण पंडित मंत्रोच्चार किया करता था। एक दिन बंबई से पधारे प्रसिद्ध समाज सुधारक राजाराम शास्त्री भागवत भी उनके साथ हो लिए थे। महाराजा कोल्हापुर के स्नान के दौरान ब्राह्मण पंडित द्वारा मंत्रोच्चार किये गए श्लोक को सुनकर राजाराम शास्त्री अचम्भित रह गए। पूछे जाने पर ब्राह्मण पंडित ने कहा की- "चूँकि महाराजा शूद्र हैं, इसलिए वे वैदिक मंत्रोच्चार न कर पौराणिक मंत्रोच्चार करते है।" ब्राह्मण पंडित की बातंर शाहूजी महाराज को अपमानजनक लगीं। उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया। महाराज शाहूजी के सिपहसालारों ने एक प्रसिद्ध ब्राह्मण पंडित नारायण भट्ट सेवेकरी को महाराजा का यज्ञोपवीत संस्कार करने को राजी किया। यह सन 1901 की घटना है। जब यह खबर कोल्हापुर के ब्राह्मणों को हुई तो वे बड़े कुपित हुए। उन्होंने नारायण भट्ट पर कई तरह की पाबंदी लगाने की धमकी दी। तब इस मामले पर शाहूजी महाराज ने राज-पुरोहित से सलाह ली, किंतु राज-पुरोहित ने भी इस दिशा में कुछ करने में अपनी असमर्थता प्रगट कर दी। इस पर शाहूजी महाराज ने गुस्सा होकर राज-पुरोहित को बर्खास्त कर दिया।

आरक्षण की व्यवस्था

उल्लेखनीय है कि सन 1894 में, जब शाहूजी महाराज ने राज्य की बागडोर सम्भाली थी तो उस समय कोल्हापुर के शासन में 98 फीसदी ब्राह्मण /सवर्ण  मंत्री थे। सामान्य प्रशासन में भी यही हाल था - कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिकीय पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। शाहूजी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के कारण सन 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी।

पिछड़े वर्ग के लोग तो शिक्षा से कोसों दूर कर दिए थे तो उनका मंत्री बनने का सवाल ही उठता। शासन और प्रशासन में पूरी तरह से ब्राह्मणशाही छाई हुई थी। ऐसे में एक शूद्र राजा अपने मन और इच्छा से सामाजिक न्याय या सामाजिक परिवर्तन का का काम कैसे कर सकता है! 

सन 1903 में शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर स्थित शंकराचार्य मठ की सम्पत्ति जप्त करने का आदेश दिया। दरअसल, मठ को राज्य के ख़ज़ाने से भारी मदद दी जाती थी। कोल्हापुर के पूर्व महाराजा द्वारा अगस्त, 1863 में प्रसारित एक आदेश के अनुसार, कोल्हापुर स्थित मठ के शंकराचार्य को अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति से पहले महाराजा से अनुमति लेनी आवश्यक थी, परन्तु तत्कालीन शंकराचार्य उक्त आदेश को दरकिनार करते हुए संकेश्वर मठ में रहने चले गए थे, जो कोल्हापुर रियासत के बाहर था।

सन 1902 के मध्य में शाहूजी महाराज किंग एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक में शामिल होने के लिए इंग्लैण्ड में आमंत्रित किये गए थे। अपने इसी प्रवास के दौरान 26 जुलाई 1902 को उन्होंने वहीं से एक आदेश जारी कर कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद दलित -पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये। इस तरह वे भारतीय इतिहास में पिछड़े वर्गों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करने वाले प्रथम शासक बन गए। आदेश के अनुसार पिछड़े वर्ग में ब्राह्मण-पारसी और अन्य प्रभु जातियों को छोड़ कर सभी शुद्रातिशूद्र (आज की SC ST OBC) जातियां  शामिल थीं। 

छत्रपति शाहूजी महाराज के इस आदेश के तत्काल प्रभाव से लागू  होते ही कोल्हापुर सहित पुरे देश के ब्राह्मणों पर जैसे गाज गिर गयी। और उन्होंने राजा के खिलाफ दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। यहाँ एक कि पागल राजा, ढेड़ राजा आदि अभद्र संबोधनों का इस्तेमाल किया। 

परन्तु महाराज ने राजाओं की एक परिषद् में अपने तर्कों से सिद्ध कर दिया कि अस्तबल के "कमजोर या बीमार" तथा "तन्दुरुत या मजबूत घोड़ों को सामूहिक रूप से दाना खिलाया जायेगा तो खाने की प्रतियोगिता में कमजोर घोड़े निरंतर पिछड़ते जायेंगे और अंत में वे बीमार  होकर सवारी के काम के नहीं रहेंगे। इस लिए अस्तबल को उतने ही बजट से दुरस्त रखने के लिए सभी घोड़ों को बराबर मात्रा में भिन्न खाने के बर्तन में राशन देना पड़ेगा। इस तरह न किसी घोड़े पर अधिक खाने की बजह से अधिक चर्बी चढ़ेगी और न कोई काम खाने के कारण कमजोर या बीमार होगा। 

इसके बाद उच्चस्तरीय कौंसिल ने महाराज के निर्णय को विवेकसम्मत ठहराया और इसे सामाजिक न्याय का सर्वोत्तम सिद्धांत करार दिया। उसी को आधार बना कर भारतीय संविधान में कंम्यूनिटी रिप्रेजेंटेशन (श्रेणीगत जनसँख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व) का रास्ता  खोला अनुच्छेद 340, 342, 15, 16, 16 (4) इत्यादि का प्रावधान करके इन वर्गों के अलग-अलग आयोग बनाये गए हैं। राजनीति में एक समयसीमा तक तथा प्रशासन और शिक्षा में असीमित समय तक आरक्षण का प्रावधान किया गया है। यह जब तक जारी रहेगा जब तक प्रत्येक बृहत सामाजिक श्रेणी को उसके जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं हो जाता। इस लिए सभी जातियों की जनगणना 1931 की तरह राष्ट्रीय स्तर पर होना बहुत जरुरी है।  

समानता की संस्कृति के नायक 

छत्रपति शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर की नगरपालिका के चुनाव में अछूतों के लिए भी सीटें आरक्षित की थीं। यह पहला मौका था की राज्य नगरपालिका का अध्यक्ष अस्पृश्य जाति से चुन कर आया था। उन्होंने हमेशा ही सभी जाति वर्गों के लोगों को समानता की नज़र से देखा। शाहूजी महाराज ने जब देखा कि अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने एक आदेश से इनके लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करा करवा दिया और उन्हें सामान्य व उच्च जाति के छात्रों के साथ ही पढने की सुविधा प्रदान की गई।

कोल्हापुर स्टेट में अछूतों की जनगणना एवं उनकी दशा में सुधार

छत्रपति शाहूजी महाराज के निर्देश पर सन 1901  में कोल्हापुर स्टेट में निवास करने वाले अछूतों की गिनती करवाई गई। उस समय उनकी आबादी लगभग 1 लाख 4000 थी। उस समय अछूतों को गांव से बाहर रखा जाता था, जहां कूड़े कचरे का ढेर होता था। अछूत सार्वजनिक तालाबों एवं कुओं से पानी नहीं पी सकते थे। वे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े भी नहीं हो सकते थे। अछूतों को छूना तो दूर उनकी परछाई भी अपवित्र मानी जाती थी। अछूतों को गंदगी में जीने को मजबूर किया गया था। ब्राह्मण पेशवाओं ने अछूतों के लिए अलग नियम बना रखे थे। छोटी-छोटी गलतियों पर उन्हें मृत्युदंड की सजा दी जाती थी। अछूतों को केवल एक ही काम दिया गया था कि वे गंदगी को साफ करें। गांव के मरे जानवरों को गांव से बाहर ले जाएं और उससे ही अपना जीवन निर्वाह करें। मरे जानवरों का मांस खाएं और उनकी खाल को अन्य तरीकों से इस्तेमाल करें। उन्हें कोई आर्थिक या सामाजिक अधिकार नहीं दिए गए थे। वे जीवन भर सवर्णों के दास बनकर रहने को मजबूर थे। सन 1901 की जनगणना से अछूतों की दशा सार्वजनिक हुई। शाहूजी महाराज ने उनकी समस्याओं का निराकरण करने का प्रयास प्रारंभ किया साथ ही इन दबे कुचले लोगों में एक दूसरे के प्रति बंधुत्व की भावना पैदा करने के लिए उनकी संवेदनाएं और भावनाओं का एकीकरण करने का प्रयास किया।

शाहूजी महाराज द्वारा किये गये सामाजिक सुधार के कार्य 

अपने शासन काल में शाहूजी महाराज ने बहुत से सामाजिक, शैक्षिक जौर मानवतावादी कार्यों को लोक हित में अंजाम दिया। उनके द्वारा किये गये कार्यों में से कई कार्य निम्नांकित हैं:

(क) अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकृति एवं प्रोत्साहन के लिये लिए नियम बनाये। विशेष विवाह अधिनियम के तहत कोल्हापुर में विवाह पंजीकृत करने का प्रावधान किया। 

(ख) विवाह विच्छेद का कानून बनाया तथा पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान की गयी। (ग) विधवाओं के पुनर्विवाह के लिये कानून बनाये। 

(घ) महिलाओं के खिलाफ की गई हिंसा और दुर्व्यवहार की समाप्ति के लिये, राज्यादेश पारित किया। 

(ड़) सन 1920 को जगतीन एवं देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिये एक कानून पारित किया। शाहूजी महाराज ने कठोरतापूर्वक भेदभाव पैदा करने वाले ब्राह्मणों के द्विज (दो जन्म) के सिद्धांत को समाप्त किया जिसमें कहा जाता था कि ब्राह्मण का दो बार जन्म होता है, इसी लिए वह श्रेष्ठ है। बाकियों का जन्म केवल एक बार होताहै, इस लिए वे निम्न स्तर के हैं। 

(च) न्याय विभाग में ब्राह्मणों का वर्चस्व था उसे समाप्त करने केलिए शाहूजी महाराज ने "दण्ड प्रक्रिया संहिता" बनाई ताकि राज्य में समान न्याय व्यवस्था लागू की जा सके। सिविल संहिता की भी रचना करवाई गई औेर उन सिविल व रिवेन्यू प्रक्रियाओं को रद्द कर दिया जिनसे आम आदमी का शोषण होता था। उन्होंने न्यायधीशों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिये एक आचार संहिता बनाई जिसकेे अनुसार यदि न्यायाधीश किसी कार्य में लापरवाही या उपेक्षा करते थे लो इसके लिये उनके कार्य की जांच कराई जा सकती थी। साहू जी महाराज ने अपने राज्य में अनेक कानून पारित किये जो आज भी तार्किक एवं प्रासंगिक हैं। इनका अध्ययन करने पर पता चलता है कि वे कितने न्यायप्रिय शासक थे ।

शाहूजी महाराज की कुछ व्यक्तिगत उपलब्धियां

शाहूजी जी महाराज के महान, मानवतावादी व प्रगतिशील कार्यो को देखकर कई बार उन्हें सम्मानित किया गया, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

  • लार्ड हैरिस ने उन्हें "छत्रपति कोल्हापुर" की पदवी से सम्मानित किया। महारानी विक्टोरिया ने उन्हें महाराज की पदवी से नवाजा। 
  • सन 1902 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी ने उन्हें एलएलडी की उपाधि प्रदान की, इन्हीं दिनों में उन्होंने पिछडे वर्ग के लोगों के लिए शिक्षा एवं नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण की ऐतिहासिक घोषणा की थी।
  • कानपुर की अखिल भारतीय कुर्मी महासभा में शाहूजी महाराज को राजर्षि की पदवी से नवाजा गया।
  • शाहूजी महाराज के साहसिक व्यवस्था परिवर्तन के कार्यो तथा शुद्र (बहुजन) समाज के उत्थान के लिये किये प्रयासों की सराहना करते हुए बाबासाहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने उन्हें "सामानिक लोकतंत्र का आधार स्तम्भ" कहा।

बाबासाहब डॉ भीमराव अम्बेडकर के संरक्षक 

ये छत्रपति शाहूजी महाराज ही थे, जिन्होंने 'भारतीय संविधान' के निर्माण में महत्त्वपूर्व भूमिका निभाने वाले भीमराव अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए विलायत भेजने में अहम भूमिका अदा की। महाराजाधिराज को बालक भीमराव की तीक्ष्ण बुद्धि के बारे में पता चला तो वे खुद बालक भीमराव का पता लगाकर मुम्बई की सीमेंट परेल चाल में उनसे मिलने गए, ताकि उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो तो दी जा सके। शाहूजी महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के 'मूकनायक' समाचार पत्र के प्रकाशन में भी सहयोग किया। महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही दलित-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी।अम्बेडकर की प्रतिभा, समर्पण और नेतृत्व क्षमता से छत्रपति शाहूजी महाराज इतने प्रभावित हो गए कि 1920 में उन्होंने एक बड़ी रैली को संबोधित किया तथा उसकी अध्यक्षता डॉ. बी आर अम्बेडकर  कराई। इसी सभा में शाहूजी ने अपने सत्यशोधक आंदोलन का नेतृत्व डा. अंबेडकर को सौंपने की घोषणा की, क्योंकि वे अब आश्वस्त हो चुके थे कि डॉ. अंबेडकर पूर्ण विश्वस्त और पूर्ण विकसित हो चुके हैं।के नेतृत्व में आंदोलन को बड़ी ताकत मिलेगी। इस तरह उन्होंने डा आंबेडकर के नेतृत्व को अपने संरक्षण में विकसित किया। यहाँ से ही दलित पिछड़ों की एकता के रूप में बहुजन समाज के निर्माण की आधारशिला दिखाई देती है। 

छत्रपति शाहूजी महाराज महान व्यक्तित्व और मूल भारतीयों  (बहुजन समाज) के सच्चे नायक थे, इस समाज को सामाजिक न्याय, एक साहस, एक आशा, एक संघर्ष और एक उज्ज्वल भविष्य देकर 6 मई 1922 को साथ छोड़ कर हमेशा के लिए चले गए। उनका विचार हमारी ताकत है। वह अपने समय के एक उत्कृष्ट लोकतांत्रिक शासक थे उन्होंने पूरा जीवन मानव जाति की सेवा में समर्पित कर दिया, विशेषकर उस समूह के लिए जिसे सबसे अधिक आवश्यकता थी। वह बुद्ध की तरह दुखियों को सुखिया बनाने वाले बहुजन राजा थे उन्हें इतिहास कभी भूल नहीं सकता।

छत्रपति शाहूजी महाराज ने राष्ट्रपिता ज्योति राव फुले के विचारों, उनके सपनों को साकार रूप प्रदान करने की भरपूर कोशिश की, साथ ही उन्होंने एक ऐसी राह निर्माण की जिस पर डा.भीमराव अम्बेडकर चले औेर जीवनभर जातिवाद और अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ते रहे। बाबासाहब ने छत्रपति शाहूजी महाराज के विचारों को भारतीय संविधान की प्रस्तावना तथा मूलभूत अधिकारों के अध्याय में समाहित किया है।

मद्रास की एक सभा को संबोधित करते समय शाहूजी महाराज ने कहा था कि, "मैं केवल शासक नही हूं बल्कि उन लाखों लोगों का मित्र और नौकर हूं जिनकी दयनीय स्थिति मानवता के हृदय को भी द्रवित कर देती है"।

48 वर्ष की अल्प आयु में छत्रपति शाहूजी महाराज की मृत्यु हो गई मगर अपने इस छोटे से शासन काल में उन्होंने जो काम किये उन्हें कोई अन्य शासक शायद सैकड़ों साल के शासनकाल में भी करने का साहस जुटा पाता। 

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