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2019 में बसपा-सपा के हाथ में होगी सत्ता की चाबी- के सी पिप्पल

मान्यवर कांशीराम जी ने अस्सी के दशक में  बहुजन समाज की अवधारणा के तहत मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने हेतु 6743 जातियों को एक वर्ग में लाने हेतु जोरदार आंदोलन चलाया। उनका नारा था "जिसकी जितनी संख्या भारी उनकी उतनी हिस्सेदारी" इस मिशन को पूरा करने के लिए एक बहुजन समाज के नाम से राजनीतिक पार्टी का गठन 14 अप्रेल 1984 को किया। उनका दवा था देश और प्रदेश में कोई भी पार्टी बहुजन जातियों यानि दलित, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों के लिए समर्पित होकर काम नहीं कर रही है, इस लिए उन्होंने नारा दिया "बहुजन समाज का हित बहुजन समाज पार्टी के साथ सुरक्षित"। इन्ही नारों के दम पर बहुजन समाज बनने लगा और 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके पहली बार सत्ता में प्रवेश किया। अक्टूवर 2006 में मान्यवर कांशीराम जी का निधन हो गया सहानुभूति लहर के चलते 2007 में उत्तर प्रदेश में उक्त पार्टी ने अपने कैडर के दम पर सरकार बनांने में कामयावी हासिल कर ली।  

कांशी राम जी के नारे से मिलता जुलता सामाजिक न्याय का नारा संयुक्त समाजवादी पार्टी (संसोपा)  के प्रणेता श्री राम मनोहर लोहिया जी ने नेहरू के समय में दिया। जबकि श्री लोहिया अगड़े समाज से ताल्लुक रखते थे परन्तु उन्होंने पिछड़े समाज को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए नारा दिया "पिछड़े पावें सौ में साठ संसोपा की बांधो गांठ”, इसी आंदोलन ने पिछड़े समाज में राजनीतिक चेतना जगाकर अनेक नेता पैदा किये जिनमें श्री चौधरी चरण सिंह, श्री कर्पुरी ठाकुर, चौधरी देवी लाल, श्री लालू प्रसाद यादव, श्री मुलायम सिंह यादव, श्री नितीश कुमार एवं श्री शरद यादव इत्यादि प्रमुख हैं। 

समाजवादी आंदोलन के साथ अम्बेडकरवादी आंदोलन को मिलाने की कई बार कोशिश की गई मगर कुछ सामाजिक कारणों तथा नेताओं की हठधर्मिता के कारण यह परवान नहीं चढ़ सका। 1993 में पहली वार उत्तर प्रदेश में कांशी राम जी और मुलायम सिंह जी की कोशिश परवान चढ़ी और सपा तथा बसपा का प्रभावी गठबंधन कामयाब हुआ। इंदिरा साहनी केस के बाद 1993 में ही मंडल कमीशन लागू हुआ और आईएएस का प्रथम ओबीसी बैच आया। उस समय मिडिया में चर्चा होने लगी मंडल आंदोलन के मुद्दे ने मंदिर (कमंडल) के मुद्दे को परास्त कर दिया है। उस समय मंडल आंदोलन के दो बड़े किरदारों को प्रिंट मीडिया ने अपने मुख्य प्रष्ठों पर जगह देते हुए उनके छाया चित्रों के साथ कैप्सन लिखा "मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्री राम।" इस प्रकार देश की प्रमुख सत्ताभोगी पार्टियों को दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों के वोटों की ताकत का अंदाजा लगा।  

आज भी मंदिर आंदोलन के धार्मिक मुद्दे की आड़ में पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण को निष्प्रभावी करने का षड़यंत्र चल रहा है। 85% वोटों वाले बहुजन समाज समाज में अनेकों राजनीतिक पार्टियां मौजूद होते हुए भी हर महीनें नई नई पार्टियां जन्म ले रही हैं। इन्हीं पार्टियों के नेताओं की हठधर्मिता के कारण बहुजन परिवार की पार्टियों का प्राकृतिक गठबंधन नहीं हो पता है। इस लिए बहुजन वोटों का हर बार विखराव होता है 30% वोटों पर भाजपा ने केंद्र की 2014 में सरकार बनाई है।

इस समय कारपोरेट सेक्टर राजनीति में दखल दे रहा है। न्यायपालिका एवं उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्रों में बहुजन समाज की हिस्सेदारी पहले से ही नगण्य है, अन्य सरकारी विभागों की नौकरियां कम करके प्राइवेट सेक्टर में शामिल होती जा रही हैं। चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियां  समाप्त करके ठेके पर उठा दी हैं। 20 वर्षों से भी अधिक समय तक सहायक प्रोफेसरों तथा अन्य अध्यापकों से तदर्थ रूप में  काम कराया जाता है। इस सम्बन्ध में एनडीटीवी ने विस्तृत रूप में प्राइम टाइम के माध्यम से रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। बड़े पूंजीपति घरानों को बड़े बड़े लोन खैरात के रूप में बैंकों द्वारा बाँट कर बैंकों को दिवालिया घोषित करने का षड्यंत्र दिख रहा है। इस समय नौ लाख करोड़ रुपयों का सरकारी कर्जा देश के बड़े घरानों पर वाकया है जो बैंकों-पूंजीपतियों तथा सरकार की मिली भगत का बड़ा घोटाला है।

एक तरफ बहुजन समाज की युवा आबादी बाद रही है दूसरी तरफ वेरोजगारी की रफ़्तार भी बाद रही है। देश का एक खास वर्ग जो कभी मेहनत मजदूरी नहीं करता है उसने मंदिरों से लेकर अन्य आय के 90% साधनों पर कब्ज़ा जमा लिया है।

ऐसे में हमारे पास सिर्फ और सिर्फ वोट है जिसको लोकतंत्र में कामयाव किया जा सकता है। बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था "राजनीतिक सत्ता वह चाबी है जिससे सभी दरवाजे खोले जा सकते हैं।" हमारे ही नेताओं ने अपनी नासमझी के कारण खुद ही ये दरवाजे भी जाम कर दिए है और हमारी चाबी भाजपा ने छीन ली है जिसका इस्तेमाल वह अपने लिए कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में हुए ताज़ा चुनाव परिणामों के विश्लेषण द्वारा यह समझाने  की कोशिश की है कि आज भी कुछ बिगड़ा नहीं है यदि हमारे नेताओं में सदबुद्धि आ जाये तो।   

इस समय उत्तर प्रदेश के तीन तरह के 652 स्थानीय निकायों में कुल 33584615 शहरी मतदाता पंजीकृत हैं, उनकी उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं में के वल 24 प्रतिशत हिस्सेदारी है। उत्तर प्रदेश के शहरी निकाय चुनाव में, भाजपा को केवल 33 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए, जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में करीब उसे 40 प्रतिशत वोट मिले थे। इस तरह भजपा को स्थानीय चुनावों में 7 प्रतिशत मतों का खरा नुकसान हुआ है जबकि शहरी क्षेत्रों में इस पार्टी का जनाधार सर्वाधिक है। प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने नगर पंचायत सदस्यों की 88 प्रतिशत सीटें, नगर पालिका परिषद सदस्यों की 82 प्रतिशत सीटें और नगर निगम सदस्यों की  45 प्रतिशत सीटें हारी हैं। हैरानी की बात है कि इसके बावजूद भी  मीडिया  प्रचार कर रहा है कि उत्तर प्रदेश (यूपी) में भाजपा ने  शहरी निकाय चुनावों में "स्वीप" किया है। इसी तरह आठ महीने पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में जनता का मनोविज्ञान करने में मिडिया ने काफी  मदद  की थी।

यह सच है कि नगर पंचायत, नगर पालिका परिषद और नगर निगम चुनावों में लड़ने वाली भाजपा ने निर्दलीयों से कम तथा अन्य सभी राजनीतिक दलों  के मुकाबले में अधिक 2366(18.7%) सीटें जीती हैं। प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टियों में समाजवादी पार्टी (सपा) ने 1260(10%), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 703(5.6%), कांग्रेस  ने 420(3.3%) और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) ने 52(0.4%) सीटों पर जीत दर्ज की है। सबसे चौकाने वाली जीत तो निर्दलीय प्रत्याशियों के हिस्से में आई है उन्होंने भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों के योग के मुकाबले 7704(60.9%) सीटें जीत कर सर्वोच्च स्थान हासिल कर लिया है।   

प्रदेश में 2014  के आम चुनाव में 80 लोकसभा सीटों में से 71(89%) सीटें अकेले भाजपा ने जीत कर देश में पहली बार अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर सभी को चौंका दिया था। फिर फरवरी के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने 403 में एक सदन में 312(77.7%) सीटों पर जीत हासिल करके फिरसे सभी विपक्षी दलों को ठेंगा दिखाते हुए एक साधू को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना कर अपने हिंदुत्व के मिशन की एक और सीढ़ी चढ़ने में कमियावी हासिल धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों की नीद हराम करदी। यदि आप पिछले दो चुनावों से भाजपा के मतदाता रुझान को देखते हैं, तो स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन बेदखल है।

भाजपा ने उक्त नगर निकाय चुनाव महायुद्ध के  तरह लड़े। तथ्य यह बताते हैं कि मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य के 48 मंत्रियों और 100 मजबूत  पदाधिकारियों का नेतृत्व किया था, जो कि इन चुनावों को फतह करने के लिए प्रदेश के हर नुक्क्ड़ और कोने में फैल गए थे। 

इन चुनावों को जीतने के लिए कुछ कार्यकर्ताओं ने खुलेआम मुसलमानों को भाजपा के लिए वोट देने या परिणाम भुगतने की धमकी दी। फिर भी, नगर पंचायत के सदस्यों, नगर पालिका सदस्यों, नगर पालिका परिषदों और उनके अध्यक्षों के परिणाम स्पष्ट रूप से इस नए भगवा किले में भाजपा के साथ बढ़ते हुए भेदभाव का नतीजा है कि 71.31 प्रतिशत नगर पंचायत सदस्य निर्दलीय जीत कर आये हैं।

हांलाकि भाजपा 16 नगर निगमों में से 14 शहरों में अपने महापौरों को जिताने में सफल रही, जिसमें से सांप्रदायिक रूप से अधिभारित अलीगढ़ और मेरठ शहरों, जहां मायावती के बसपा के उम्मीदवार अप्रत्याशित रूप से जीते तथा सहारनपुर और झाँसी में बहुत कम वोटों से बसपा प्रत्याशी हारे। इन निगम चुनावों में ही केवल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) उतारी गयी थीं जिनमें बहुत जगह गड़वड़ी की शिकायत की गई जिनको मीडिया ने  कम-से-कम  दिखाया। यह भी एक रहस्य है कि चुनाव आयोग ने महापौरों के लिए ही ईवीएम मशीन का प्रयोग क्यों किया, जबकि अन्य सभी श्रेणियों के चुनाव बैलेट पेपर के माध्यम से आयोजित किये गए और जहाँ भाजपा की कम दर्ज हुई।

यूपी 2017 के नगर निकाय चुनावों में राजनीतिक दलों का सीट प्रदर्शन

उपरोक्त चुनाव विपक्षी दलों को एक हो जाने का सन्देश दे रहे हैं। आगे के चुनावों में भी विपक्षी एकता (सपा-बसपा गठजोड़) के बिना भाजपा से छुटकारा मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। विश्लेषण करने पर यह पता चला है कि निकाय चुनावों में सपा+बसपा ने 18%+15%=33% वोट शेयर प्राप्त किया है जो भाजपा के 33% वोट के बराबर है। जबकि 2017 के ही विधान सभा चुनावों में भाजपा  को 37% के मुकाबले सपा+बसपा को 42% वोट मिले थे। हांलाकि शहरी क्षेत्रों में सपा-बसपा का वोट शेयर कम होता है। इस बार कांग्रेस के वोटों में विधान सभा के मुकाबले में 5% वोटो का इजाफा हुआ है। निकाय चुनावों में यदि सपा+बसपा+कांग्रेस का गठबंधन होता तो 18%+15%+12%=45% वोट शियर होता जो भाजपा के वोटों से 12% अधिक होता। 2019 का चुनाव जीतने के लिए सपा-बसपा को अपने साथ एक और पार्टी को साथ लेना होगा या 10% वोटों के लिए निर्दलीयों या अन्य के वोटों में से प्रबंध करना होगा। हालांकि, पिछले चुनावों के मुकाबले भाजपा का ग्राफ लगातार नीचे गिर रहा है। लोक सभा में 42%, विधान सभा में 37% तथा निकाय चुनावों में उसे 33 फीसदी वोटों से संतोष करना पड़ा है। जबकि, शहरी क्षेत्रों में भाजपा के वोट ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले अधिक होते हैं। इस गठबंधन को रोकने के लिए भाजपा कोई भी हथकंडा अपना सकती है। कुछ भी हो अभी तो भाजपा बार बार कामयाब हो कर दिखा रही है।

किसी तरह भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए, 2019 के लोक सभा चुनाव हेतु कम से कम उत्तर प्रदेश में, गैर राजनीतिक सगठनों द्वारा बसपा और सपा को गठबंधन हेतु प्रेरित करना होगा। इस फार्मूले से बहुजनों के हाथ में सत्ता की चाबी आ सकती है।