संसद मार्ग के जयंती समारोह में मान्यवर श्री राकेश टिकैत द्वारा बहुजन संदेश खंड-4 का लोकार्पण
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हम होंगे कामयाब एक दिन
दिनांक 14 अप्रैल 2022 को संसद मार्ग, नई दिल्ली पर डॉ. बी आर अंबेडकर की 131वीं जयंती के मेला समारोह के अवसर पर "बहुजन एकता मंच" के पंडाल में मान्यवर श्री राकेश टिकैत द्वारा "बहुजन संदेश खंड-4" पुस्तक के परिचय प्रपत्र का लोकार्पण किया। इस अवसर पर उन्हें बहुजन एकता मंच की ओर से मार्केट मार्केट प्रकाशित पुस्तकों बहुजन संदेश खंड-1, खंड -2 खंड-3 एवं आरक्षण नहीं हिस्सेदारी की प्रतियां भेंट की गई। इस अवसर पर उन्होंने संदेश दिया कि पढ़ने लिखने और रिसर्च का काम करने की आज बहुत आवश्यकता है। बहुजन एकता मंच के स्वास्थ्य जांच शिविर में उन्होंने अपने स्वास्थ्य की जांच डॉक्टर जयकरन से कराई और इस काम की उन्होंने सराहना की तथा इस काम को जारी रखने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि डॉ भीमराव अंबेडकर की जयंती मनाना ही काफी नहीं है, बल्कि बाबा साहब की पुस्तकों और बहुजन एकता मंच द्वारा प्रकाशित रिसर्च पेपर और पुस्तकों को पढ़ने की बहुत आवश्यकता है। इस प्रकार बहुजन समाज संगठित हो सकता है और प्रभावी ढंग से काम कर सकता है। राजनीतिक दलों और नेताओं को दिशा निर्देश देने का काम राष्ट्रीय समग्र विकास संघ और राष्ट्रीय बहुजन एकता मंच कर रहा है उसकी उन्होंने प्रशंसा की। श्री राकेश टिकैत द्वारा लोकार्पित खंड-4 पुस्तक का परिचय प्रपत्र का मसौदा यहां साझा मकसद के पाठकों को पढ़ने के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है:
अंबेडकरवाद आज भी जिंदा है
डॉ. अंबेडकर स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने के लिए नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलो।’ उन्होंने न्याय के बारे में कहा कि ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है।' संविधान प्रस्तुत करते समय बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि 'आज से हम दोहरी जिंदगी में प्रवेश कर रहे हैं, एक तरफ समान मताधिकार के कारण राजनीतिक रूप से तो समान होंगे पर सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण गरीब और वंचित लोग अपने इस राजनीतिक अधिकार का प्रयोग अपने हित में नहीं कर पाएंगे।' इसलिए जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता की लड़ाई पूरी नहीं होगी तब तक इस समान मताधिकार का कोई अर्थ नहीं है। सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक तीनों क्षेत्रों में 'एक व्यक्ति की एक कीमत' होने पर ही पूर्ण लोकतंत्र की अपेक्षा की जा सकती है। हमारे संविधान का भी यही अंतिम लक्ष्य है।
एक समय ऐसा था जब लोगों को वोट डालने का अधिकार ही नहीं था। यह अधिकार डॉ अंबेडकर के संघर्ष से मिला,परंतु बहुसंख्यक बहुजनों ने मताधिकार का मूल्य ही नहीं समझा। उनका वोट दबंग और पैसे वाले लोग अपने पक्ष में डलवाने में कामयाब होने लगे या उनको वोट डालने ही नहीं दिया गया। जबकि, प्रत्येक वोटर का संवैधानिक अधिकार है कि वह अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट डाल सके, यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग और प्रशासन की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की सबसे कीमती चीज ‘वोट’ है। सत्ता की खातिर भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां दलित और अत्यंत पिछड़ी जातियों के गरीब और असहाय मतदाताओं को सरकारी खजाने से ‘फ्री राशन’ जैसे अन्य तरह के प्रलोभन देकर उनके वोट हासिल कर रहीं हैं।
इस तरह सामाजिक, आर्थिक समानता मिलना तो बहुत दूर की बात है, आज बाबा साहब का दिया हुआ मताधिकार ही बनाए रखना मुश्किल है:
- ईवीएम में पड़े वोटों को मिलान करने के लिए पेपर ट्रेल मशीन का प्रावधान है, अगर उनके शत प्रतिशत वोटों का मिलान नहीं किया जाता है तो फिर पेपर ट्रेल लगाने का क्या फायदा है?
- पुलिस और प्रशासन पर ईवीएम बदलने का आरोप बहुत ही गंभीर मामला है।
- इलेक्शन कमीशन द्वारा एक महीने तक वोट पड़ी हुई ईवीएम को स्ट्रांग रूम में रखना हेराफेरी की गुंजाइश को बल प्रदान करता है।
- सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि पेपर ट्रेल मशीन की पर्चियों से ईवीएम में पड़े पांच फीसदी से अधिक मतों का मिलान नहीं किया जा सकता। जुडिशरी का यह आदेश लोकतंत्र में पारदर्शिता की मंशा के खिलाफ है।
यह प्रपत्र इस विषय पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। इस संदर्भ में यह सवाल उठता है कि उक्त परिस्थितियों में क्या अम्बेडकरवाद अभी भी जिंदा है?
बाबा साहब ने सोचा था कि बहुजनों को मताधिकार के बल पर सशक्त और आजाद किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कहा था कि “जाओ अपनी दीवारों पर लिख लो, तुम एक दिन इस देश की सत्ताधारी जमात बनोगे” इस लिए बहुजनों का राज स्थापित करने के लिए उन्होंने सबसे पहले 1930 में डिप्रेस्ड क्लासेस फेडरेशन (DCF) बनाई। इसके बाद 1935 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) की स्थापना की। 1942 में इन दोनों संगठनों के बाद शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (SCF) के नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई। अंत में 1956 में यह रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के रूप में विकसित हुई।
बाबा साहब मानते थे कि सामाजिक परिवर्तन के तीन औजार होते हैं। जिनमें पहला- औजार सामाजिक एक्शन होता है, दूसरा- राजनीतिक एक्शन है जो समस्या के स्थाई समाधान के लिए है। तीसरा और अंतिम औजार- सांस्कृतिक एक्शन है, जिसके द्वारा समस्या का टिकाऊ समाधान किया जा सकता है। ठीक यही बात मान्यवर कांशीरान जी ने अपनी पुस्तक चमचा युग में उल्ल्खित की है। अत: सांस्कृतिक परिवर्तन और उसके नियंत्रण से ही सामाजिक सम्मान और समानता प्राप्त होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए बाबा साहब ने अपने जीवन की शुरुआत 1916 में सामाजिक संघर्ष के रूप में की। 1930 से 1956 तक का समय राजनीतिक संघर्ष में लगाया। अंत में उन्होंने 20 अक्टूबर 1956 को अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। यहां बाबा साहब के संपूर्ण जीवन संघर्ष में तीनों एक्शन परिलक्षित होते हैं। ठीक इसी प्रकार मान्यवर कांशीराम जी के जीवन संघर्ष में भी यही तीनों एक्शन दिखाई देते हैं।
बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने 18 मार्च 1956 को आगरा में बोलते हुए कहा था कि “मैं इस कारवां को बड़ी मुश्किल से यहां तक लाया हूं, अगर मेरे अनुयाई इसे आगे नहीं ले जा सकें तो कम से कम इसको पीछे मत धकेलना।"
मान्यवर कांशीराम जी का संघर्ष
बाबा साहब की राजनीतिक विरासत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का 1970 तक पतन हो जाने के बाद, बहुजनों की विरासत को फिर से पुनर्स्थापित करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1973 से बामसेफ/डीएस-4 (सामाजिक एक्शन), बीएसपी (राजनीतिक एक्शन) और अंत में उन्होंने बीआरसी (Budhist Research Centre) के लक्ष्य को पूरा करने के लिए 20 अक्टूबर 2006 को 6 करोड़ लोगों के साथ बुद्धिज्म में दीक्षित होने की इच्छा 2002 में व्यक्त की, बाबा साहब की तरह यह उनका एक बड़ा सांस्कृतिक एक्शन था, जो अधूरा रह गया। उनका 9 अक्टूबर 2006 को परिनिर्वाण हो गया। इस तरह उन्होंने बाबासाहब के अधूरे मिशन को पूरा करने हेतु अपना पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। बहुजन समाज पार्टी की स्थापना 14 अप्रैल 1984 को की थी जो 1996 तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित हुई। आज वह अपने मूल गृह उत्तर प्रदेश में धरातल की ओर जाती दिख रही है। 1989 से 2022 तक के राजनीतिक सफर की चर्चा हम यहां कर रहे हैं।
अंबेडकर की विरासत बहुजन समाज पार्टी का पहला सकारात्मक परिणाम उसकी स्थापना के 5 वर्ष बाद उत्तर प्रदेश में 1989 में मिला, जब बसपा ने 9.4 फीसद वोट शेयर के साथ 13 विधान सभा और 3 लोक सभा की सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की। इसके बाद बसपा निरंतर 2007 तक ऊंचाइयों को छूती रही। पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को शून्य पर गिरना पड़ा। 2017 के विधान सभा में उसे मात्र 19 सीटों से गुजरना पड़ा और अब 2022 में तो 1 सीट से संतोष करना पड़ा। वोट शेयर की बात करें तो 2022 में सबसे कम 12.9 फीसद वोट ही मिल सके हैं, जो उत्तर प्रदेश के जाटव/ चमार समाज की आबादी 13 फीसदी के बराबर हैं। 2017 में 22 फीसदी वोट शेयर था, उसकी बदौलत बसपा का सपा के साथ 2019 में गठबंधन हुआ था। गठबंधन में वोट शेयर पुराने स्तर पर लगभग बरक़रार रहते हुए बसपा ने 10 लोक सभा की सीटें भी जीतीं और सपा ने पांच। बसपा+सपा का गठबंधन टूटने का सबसे बड़ा नुकसान बसपा को हुआ है। निम्नांकित चार्ट-1 को देखें :
बहुजन समाज के लोग बसपा, सपा, लोकदल एवं अन्य समान विचारधारा की छोटी पार्टियों का गठबंधन चाह रहे थे। परन्तु पता नहीं बसपा प्रमुख क्यों गठबंधन के खिलाफ रहीं। विदित है कांग्रेस सहित सभी परिवारवादी पार्टियों को समाप्त करना भाजपा का लक्ष्य है। ऐसे में गठबंधन के बिना कोई भी परिवारवादी पार्टी जिन्दा नहीं रह सकती है। इन परिस्थितियों में गठबंधन करना ऐसी पार्टियों की मज़बूरी और जरुरत है, अगर यह पार्टियां लगातार हारती रहीं और समाज की चाहत के विपरीत स्टेटमेंट देती रहीं तो समाज भी इनका साथ छोड़ सकता है। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का भी यही हश्र हुआ था उसके पतन से कांशीराम जी ने सबक लेकर आगे का राजनीतिक सफर तय किया था।
बहुजन लीडरशिप की प्रभावशीलता में गिरावट
- बहुजन लीडरशिप को प्रभावशील बनाने के लिए फिर से सर्वजन से बहुजन पर वापस आना होगा।
- पार्टी के राजनीतिक फैसलों को बहुजन सम्मत बनाने के लिए एक बहुसदस्यीय निर्णायक कमेटी की जरुरत है।
- उत्तर प्रदेश में 2022 के इलेक्शन के समय प्रबुद्ध समाज के ब्राह्मण सम्मलेन राजनीतिक धोखा साबित हुए।
- बहुजन समाज पार्टियों की लीडरशिप को ब्राह्मणी मायाजाल (परशुराम के फरसे और त्रिशूल) जैसे प्रतीकों से मुक्त होना होगा। जयभीम और जय फुले के साथ इनका कोई मेल नहीं है।
बहुजन समाज पार्टी की लीडरशिप मान्यवर कांशीराम जैसे निडर और शीलवान नेता ने की, उन्होंने अपने को राजनीतिक दवाव, पैसे और पद का लालच, पारिवारिक मोह से मुक्त रह कर पार्टी और समाज को सशक्त बनाया। उनकी उत्तराधिकारी बहन मायावती जी भी भय, मोह और लालच मुक्त होकर ही पार्टी को पुराने अंदाज में ला सकती हैं। लोगों का मानना है की बहिन जी ईडी और सीबीआई से डरती हैं। परन्तु इतिहास गवाह है कि बहनजी नैनी और बरेली जेल में जाने के समय तो नहीं डरी थीं। उस समय के संघर्ष के बल पर ही बहुजन समाज उनके साथ आज भी खड़ा है। पार्टी यदि पुराने ग्राफ को दुबारा हासिल करना चाहती है, तो पुराने संघर्ष को एक बार फिर दोहराना पड़ेगा, अन्यथा लोग कहने लगे हैं कि पार्टी आरपीआई के रास्ते पर जा रही है।
बहुजन-समाजवादी गठबंधन की आज फिर जरुरत: 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव में एनडीए को कुल 4 करोड़ 3 लाख (43. 82 फीसद) वोट के साथ 273 सीटें मिलीं, समाजवादी गठबंधन को 3 करोड़ 33 लाख (36.18 फीसद) वोट के साथ 125 सीटें मिल सकीं और चुनाव में भाजपा से पराजित हो गये। इस बार सपा को उत्तर प्रदेश में 32.06 फीसद वोट (111सीटें), राष्ट्रीय लोकदल को 2.85 फीसद वोट (8 सीटें) और सुहेलदेव भारत समाज पार्टी को 1.27 फीसद वोट (6 सीटें) मिल सकी हैं। अगर समाजवादी गठबंधन के वोटों में बहुजन समाज पार्टी के 1 करोड़ 18 लाख 73 हजार (12.88 फीसद) वोटों को जोड़ दिया जाए तो बहुजन+समाजवादी गठबंधन को 4 करोड़ 52 लाख (49.06 फीसद) वोट हो जाते हैं। इस प्रकार बहुजन समाजवादी गठबंधन को कम से कम 350 सीटें मिलने की सम्भवना होती। आगे भी 2024 में बहुजन-समाजवादी गठबंधन नहीं होता है तो फिर से उत्तर प्रदेश में भाजपा को 80 में से 75 सीटें मिल सकती हैं। इस लिए 2024 में पराजय से बचने के लिए बहुजन समाजवादी वोटरों के हित में गठबंधन की दिशा में मान्यवर अखिलेश जी और माननीय बहन जी को पहल करनी चाहिए। विस्तृत विवरण के लिए निम्नांकित (तालिका-1) देख़ सकते हैं:
बहुजनों के पक्ष में यूपी के सामाजिक समीकरण फिर भी सत्ता से दूर
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसलमान 38,483, 967 (20.26 फीसद) है, और भारत के उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक बनता है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की एक बड़ी शहरी आबादी है।
दलित मुस्लिम बाहुल्य जिले: अगर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और मुस्लिम वोटों के गठजोड़ से बनने वाले जिले की आबादी की बात करें तो उत्तर प्रदेश के 1. आगरा जिले में 31.90 फीसद, 2. अलीगढ़ में 40.47 फीसद, 3. इलाहाबाद में 35.53 फीसद, 4. अम्बेडकर नगर में 41.48 फीसद, 5. औरैया में 35.80 फीसद, 6. आजमगढ़ में 41.19 फीसद, 7. बदायूं में 40.21 फीसद, 8. बागपत में 39.44 फीसद 9. बहराइच में 48.42 फीसद, 10. बलिया में 25.27 फीसद, 11. बलरामपुर में 51.56 फीसद, 12. बाँदा में 30.36 फीसद, 13.बाराबंकी में 49.13 फीसद, 14. बरेली में 47.10 फीसद, 15. बस्ती में 35.80 फीसद, 16. बिजनौर में 64.47 फीसद, 17. बुलंदशहर में 42.94 फीसद, 18. चंदौली में 36.02 फीसद, 19. चित्रकूट में 30.42 फीसद, 20. देवरिया में 30.26 फीसद, 21. एटा में 24.14 फीसद, 22. इटावा में 31.76 फीसद, 23. फैजाबाद में 37.30 फीसद, 24. फर्रुखाबाद में 31.30 फीसद, 25. फतेहपुरी में 38.06 फीसद, 26. फिरोजाबाद में 31.67 फीसद, 27. गौतम बुद्ध नगर में 26.35 फीसद, 28. गाज़ियाबाद में 39.11 फीसद, 29. गाजीपुर में 31.06 फीसद, 30. गोंडा में 35.32 फीसद, 31. गोरखपुर में 30.58 फीसद, 32. हमीरपुर में 30.18 फीसद, 33. हरदोई में 44.75 फीसद, 34. जालौन में 37.95 फीसद, 35. जौनपुर में 32.94 फीसद, 36. झांसी में 35.74 फीसद, 37. ज्योतिबा फुले नगर में 58.09 फीसद, 38. कन्नौज में 35.21 फीसद, 39. कानपुर देहात में 35.48 फीसद, 40. कानपुर नगर में 33.61 फीसद, 41. कौशाम्बी में 48.53 फीसद, 42. कुशीनगर में 34.92 फीसद, 43. लखमीपुर खीरी में 47.83 फीसद, 44. ललितपुर में 28.35 फीसद, 45. लखनऊ में 42.32 फीसद, 46. महामाया नगर में 34.99 फीसद, 47. महोबा में 42.39 फीसद, 48. महराजगंज में 25.57 फीसद, 49. मैनपुरी में 25.13 फीसद, 50. मथुरा में 28.45 फीसद, 51. मऊ में 41.95 फीसद, 52. मेरठ में 52.62 फीसद, 53. मिर्जापुर में 35.08 फीसद, 54. मुरादाबाद में 66.14 फीसद, 55. मुजफ्फरनगर में 54.65 फीसद, 56. पीलीभीत में 40.61 फीसद, 57. प्रतापगढ़ में 36.20 फीसद, 58. रायबरेली में 39.91 फीसद, 59. रामपुर में 63.80 फीसद, 60. सहारनपुर में 64.08 फीसद, 61. संत कबीर नगर में 45.21 फीसद, 62. संत रविदास नगर (भदोही) में 35.39 फीसद, 63. शाहजहांपुर में 35.33 फीसद, 64. श्रावस्ती में 47.84 फीसद, 65. सिद्धार्थनगर में 45.64 फीसद, 66. सीतापुर में 52.19 फीसद, 67. सोनभद्र में 48.91 फीसद, 68. सुल्तानपुर में 39.05 फीसद, 69. उन्नाव में 42.31 फीसद, 70. वाराणसी में 28.92 फीसद, 71. कांशीराम नगर में 32.59 फीसद और पूरे उत्तर प्रदेश में 40.57 फीसद वोटर केवल दलित और मुस्लिम समुदाय के हैं।
तालिका 2 में उत्तर प्रदेश की जातियों और धर्मों के आंकड़े दिए गए हैं जो इस बात के सबूत हैं की प्रदेश का सामाजिक तानाबाना बहुजन समाजवादी पार्टियों के पक्ष में है।