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अंबेडकरवाद आज भी जिंदा है

संसद मार्ग के जयंती समारोह में मान्यवर श्री राकेश टिकैत द्वारा बहुजन संदेश खंड-4 का लोकार्पण

LINK-https://youtu.be/fpOBnloH1Is

हम होंगे कामयाब एक दिन 

https://youtu.be/5syeD1smsTU

 

दिनांक 14 अप्रैल 2022 को संसद मार्ग, नई दिल्ली पर डॉ. बी आर अंबेडकर की 131वीं जयंती के मेला समारोह के अवसर पर "बहुजन एकता मंच" के पंडाल में मान्यवर श्री राकेश टिकैत द्वारा "बहुजन संदेश खंड-4" पुस्तक के परिचय प्रपत्र का लोकार्पण किया। इस अवसर पर उन्हें बहुजन एकता मंच की ओर से मार्केट मार्केट प्रकाशित पुस्तकों बहुजन संदेश खंड-1, खंड -2 खंड-3 एवं आरक्षण नहीं हिस्सेदारी की प्रतियां भेंट की गई। इस अवसर पर उन्होंने संदेश दिया कि पढ़ने लिखने और रिसर्च का काम करने की आज बहुत आवश्यकता है। बहुजन एकता मंच के स्वास्थ्य जांच शिविर में उन्होंने अपने स्वास्थ्य की जांच डॉक्टर जयकरन से कराई और इस काम की उन्होंने सराहना की तथा इस काम को जारी रखने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि डॉ भीमराव अंबेडकर की जयंती मनाना ही काफी नहीं है, बल्कि बाबा साहब की पुस्तकों और बहुजन एकता मंच द्वारा प्रकाशित रिसर्च पेपर और पुस्तकों को पढ़ने की बहुत आवश्यकता है। इस प्रकार बहुजन समाज संगठित हो सकता है और प्रभावी ढंग से काम कर सकता है। राजनीतिक दलों और नेताओं को दिशा निर्देश देने का काम राष्ट्रीय समग्र विकास संघ और राष्ट्रीय बहुजन एकता मंच कर रहा है उसकी उन्होंने प्रशंसा की। श्री राकेश टिकैत द्वारा लोकार्पित खंड-4 पुस्तक का परिचय प्रपत्र का मसौदा यहां साझा मकसद के पाठकों को पढ़ने के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है:

अंबेडकरवाद आज भी जिंदा है

डॉ. अंबेडकर स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने के लिए नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलो।’ उन्होंने न्याय के बारे में कहा कि ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है।' संविधान प्रस्तुत करते समय बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि 'आज से हम दोहरी जिंदगी में प्रवेश कर रहे हैं, एक तरफ  समान मताधिकार के कारण राजनीतिक रूप से तो समान होंगे पर सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण गरीब और वंचित लोग अपने इस राजनीतिक अधिकार का प्रयोग अपने हित में नहीं कर पाएंगे।' इसलिए जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता की लड़ाई पूरी नहीं होगी तब तक इस समान मताधिकार का कोई अर्थ नहीं है। सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक तीनों क्षेत्रों में 'एक व्यक्ति की एक कीमत' होने पर ही पूर्ण लोकतंत्र की अपेक्षा की जा सकती है। हमारे संविधान का भी यही अंतिम लक्ष्य है।

एक समय ऐसा था जब लोगों को वोट डालने का अधिकार ही नहीं था। यह अधिकार डॉ अंबेडकर के संघर्ष से मिला,परंतु बहुसंख्यक बहुजनों ने मताधिकार का मूल्य ही नहीं समझा। उनका वोट दबंग और पैसे वाले लोग अपने पक्ष में डलवाने में कामयाब होने लगे या उनको वोट डालने ही नहीं दिया गया। जबकि, प्रत्येक वोटर का संवैधानिक अधिकार है कि वह अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट डाल सके, यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग और प्रशासन की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की सबसे कीमती चीज ‘वोट’ है। सत्ता की खातिर भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां दलित और अत्यंत पिछड़ी जातियों के गरीब और असहाय मतदाताओं को सरकारी खजाने से ‘फ्री राशन’ जैसे अन्य तरह के प्रलोभन देकर उनके वोट हासिल कर रहीं हैं।

इस तरह सामाजिक, आर्थिक समानता मिलना तो बहुत दूर की बात है, आज बाबा साहब का दिया हुआ मताधिकार ही बनाए रखना मुश्किल है:

  1. ईवीएम में पड़े वोटों को मिलान करने के लिए पेपर ट्रेल मशीन का प्रावधान है, अगर उनके शत प्रतिशत वोटों का मिलान नहीं किया जाता है तो फिर पेपर ट्रेल लगाने का क्या फायदा है?
  2. पुलिस और प्रशासन पर ईवीएम बदलने का आरोप बहुत ही गंभीर मामला है। 
  3. इलेक्शन कमीशन द्वारा एक महीने तक वोट पड़ी हुई ईवीएम को स्ट्रांग रूम में रखना हेराफेरी की गुंजाइश को बल प्रदान करता है।
  4. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि पेपर ट्रेल मशीन की पर्चियों से ईवीएम में पड़े पांच फीसदी से अधिक मतों का मिलान नहीं किया जा सकता। जुडिशरी का यह आदेश लोकतंत्र में पारदर्शिता की मंशा के खिलाफ है।

यह प्रपत्र इस विषय पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। इस संदर्भ में यह सवाल उठता है कि उक्त परिस्थितियों में क्या अम्बेडकरवाद अभी भी जिंदा है?

बाबा साहब ने सोचा था कि बहुजनों को मताधिकार के बल पर सशक्त और आजाद किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कहा था कि “जाओ अपनी दीवारों पर लिख लो, तुम एक दिन इस देश की सत्ताधारी जमात बनोगे” इस लिए बहुजनों का राज स्थापित करने के लिए उन्होंने सबसे पहले 1930 में डिप्रेस्ड क्लासेस फेडरेशन (DCF) बनाई। इसके बाद 1935 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) की स्थापना की। 1942 में इन दोनों संगठनों के बाद शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (SCF) के नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई। अंत में 1956 में यह रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के रूप में विकसित हुई।   

बाबा साहब मानते थे कि सामाजिक परिवर्तन के तीन औजार होते हैं। जिनमें पहला- औजार सामाजिक एक्शन होता है, दूसरा- राजनीतिक एक्शन है जो समस्या के स्थाई समाधान के लिए है। तीसरा और अंतिम औजार- सांस्कृतिक एक्शन है, जिसके द्वारा समस्या का टिकाऊ समाधान किया जा सकता है। ठीक यही बात मान्यवर कांशीरान जी ने अपनी पुस्तक चमचा युग में उल्ल्खित की है। अत: सांस्कृतिक परिवर्तन और उसके नियंत्रण से ही सामाजिक सम्मान और समानता प्राप्त होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए बाबा साहब ने अपने जीवन की शुरुआत 1916 में सामाजिक संघर्ष के रूप में की। 1930 से 1956 तक का समय राजनीतिक संघर्ष में लगाया। अंत में उन्होंने 20 अक्टूबर 1956 को अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। यहां बाबा साहब के संपूर्ण जीवन संघर्ष में तीनों एक्शन परिलक्षित होते हैं। ठीक इसी प्रकार मान्यवर कांशीराम जी के जीवन संघर्ष में भी यही तीनों एक्शन दिखाई देते हैं।

बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने 18 मार्च 1956 को आगरा में बोलते हुए कहा था कि “मैं इस कारवां को बड़ी मुश्किल से यहां तक लाया हूं, अगर मेरे अनुयाई इसे आगे नहीं ले जा सकें तो कम से कम इसको पीछे मत धकेलना।"

मान्यवर कांशीराम जी का संघर्ष

बाबा साहब की राजनीतिक विरासत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का 1970 तक पतन हो जाने के बाद, बहुजनों की विरासत को फिर से पुनर्स्थापित करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1973 से बामसेफ/डीएस-4 (सामाजिक एक्शन), बीएसपी (राजनीतिक एक्शन) और अंत में उन्होंने बीआरसी (Budhist Research Centre) के लक्ष्य को पूरा करने के लिए 20 अक्टूबर 2006  को 6 करोड़ लोगों के साथ बुद्धिज्म में दीक्षित होने की इच्छा 2002 में व्यक्त की, बाबा साहब की तरह यह उनका एक बड़ा सांस्कृतिक एक्शन था, जो अधूरा रह गया। उनका 9 अक्टूबर 2006 को परिनिर्वाण हो गया। इस तरह उन्होंने बाबासाहब के अधूरे मिशन को पूरा करने हेतु अपना पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। बहुजन समाज पार्टी की स्थापना 14 अप्रैल 1984 को की थी जो 1996 तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित हुई। आज वह अपने मूल गृह उत्तर प्रदेश में धरातल की ओर जाती दिख रही है। 1989 से 2022 तक के राजनीतिक सफर की चर्चा हम यहां कर रहे हैं।

अंबेडकर की विरासत बहुजन समाज पार्टी का पहला सकारात्मक परिणाम उसकी स्थापना के 5 वर्ष बाद उत्तर प्रदेश में 1989 में मिला, जब बसपा ने 9.4 फीसद वोट शेयर के साथ 13 विधान सभा और 3 लोक सभा की सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की। इसके बाद बसपा निरंतर 2007 तक ऊंचाइयों को छूती रही। पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को शून्य पर गिरना पड़ा। 2017 के विधान सभा में उसे मात्र 19 सीटों से गुजरना पड़ा और अब 2022 में तो 1 सीट से संतोष करना पड़ा। वोट शेयर की बात करें तो 2022 में सबसे कम 12.9 फीसद वोट ही मिल सके हैं, जो उत्तर प्रदेश के जाटव/ चमार समाज की आबादी 13 फीसदी के बराबर हैं। 2017 में 22 फीसदी वोट शेयर था, उसकी बदौलत बसपा का सपा के साथ 2019 में गठबंधन हुआ था। गठबंधन में वोट शेयर पुराने स्तर पर लगभग बरक़रार रहते हुए बसपा ने 10 लोक सभा की सीटें भी जीतीं और सपा ने पांच। बसपा+सपा का गठबंधन टूटने का सबसे बड़ा नुकसान बसपा को हुआ है। निम्नांकित चार्ट-1 को देखें :

 

बहुजन समाज के लोग बसपा, सपा, लोकदल एवं अन्य समान विचारधारा की छोटी पार्टियों का गठबंधन चाह रहे थे। परन्तु पता नहीं बसपा प्रमुख क्यों गठबंधन के खिलाफ रहीं। विदित है कांग्रेस सहित सभी परिवारवादी पार्टियों को समाप्त करना भाजपा का लक्ष्य है। ऐसे में गठबंधन के बिना कोई भी परिवारवादी पार्टी जिन्दा नहीं रह सकती है। इन परिस्थितियों में गठबंधन करना ऐसी पार्टियों की मज़बूरी और जरुरत है, अगर यह पार्टियां लगातार हारती रहीं और समाज की चाहत के विपरीत स्टेटमेंट देती रहीं तो समाज भी इनका साथ छोड़ सकता है। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का भी यही हश्र हुआ था उसके पतन से कांशीराम जी ने सबक लेकर आगे का राजनीतिक सफर तय किया था।

बहुजन लीडरशिप की प्रभावशीलता में गिरावट

  1. हुजन लीडरशिप को प्रभावशील बनाने के लिए फिर से सर्वजन से बहुजन पर वापस आना होगा।
  2. पार्टी के राजनीतिक फैसलों को बहुजन सम्मत बनाने के लिए एक बहुसदस्यीय निर्णायक कमेटी की जरुरत है।
  3. उत्तर प्रदेश में 2022 के इलेक्शन के समय प्रबुद्ध समाज के ब्राह्मण सम्मलेन राजनीतिक धोखा साबित हुए।
  4. बहुजन समाज पार्टियों की लीडरशिप को ब्राह्मणी मायाजाल (परशुराम के फरसे और त्रिशूल) जैसे प्रतीकों से मुक्त होना होगा। जयभीम और जय फुले के साथ इनका कोई मेल नहीं है।

बहुजन समाज पार्टी की लीडरशिप मान्यवर कांशीराम जैसे निडर और शीलवान नेता ने की, उन्होंने अपने को राजनीतिक दवाव, पैसे और पद का लालच, पारिवारिक मोह से मुक्त रह कर पार्टी और समाज को सशक्त बनाया। उनकी उत्तराधिकारी बहन मायावती जी भी भय, मोह और लालच मुक्त होकर ही पार्टी को पुराने अंदाज में ला सकती हैं। लोगों का मानना है की बहिन जी ईडी और सीबीआई से डरती हैं। परन्तु इतिहास गवाह है कि बहनजी नैनी और बरेली जेल में जाने के समय तो नहीं डरी थीं। उस समय के संघर्ष के बल पर ही बहुजन समाज उनके साथ आज भी खड़ा है। पार्टी यदि पुराने ग्राफ को दुबारा हासिल करना चाहती है, तो पुराने संघर्ष को एक बार फिर दोहराना पड़ेगा, अन्यथा लोग कहने लगे हैं कि पार्टी आरपीआई के रास्ते पर जा रही है।

बहुजन-समाजवादी गठबंधन की आज फिर जरुरत: 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव में एनडीए को कुल 4 करोड़ 3 लाख (43. 82 फीसद) वोट के साथ 273 सीटें मिलीं, समाजवादी गठबंधन को 3 करोड़ 33 लाख (36.18 फीसद) वोट के साथ 125 सीटें मिल सकीं और चुनाव में भाजपा से पराजित हो गये। इस बार सपा को उत्तर प्रदेश में 32.06 फीसद वोट (111सीटें), राष्ट्रीय लोकदल को 2.85 फीसद वोट (8 सीटें) और सुहेलदेव भारत समाज पार्टी को 1.27 फीसद वोट (6 सीटें) मिल सकी हैं। अगर समाजवादी गठबंधन के वोटों में बहुजन समाज पार्टी के 1 करोड़ 18 लाख 73 हजार (12.88 फीसद) वोटों को जोड़ दिया जाए तो बहुजन+समाजवादी गठबंधन को 4 करोड़ 52 लाख (49.06 फीसद) वोट हो जाते हैं। इस प्रकार बहुजन समाजवादी गठबंधन को कम से कम 350 सीटें मिलने की सम्भवना होती। आगे भी 2024 में बहुजन-समाजवादी गठबंधन नहीं होता है तो फिर से उत्तर प्रदेश में भाजपा को 80 में से 75 सीटें मिल सकती हैं। इस लिए 2024 में पराजय से बचने के लिए बहुजन समाजवादी वोटरों के हित में गठबंधन की दिशा में मान्यवर अखिलेश जी और माननीय बहन जी को पहल करनी चाहिए। विस्तृत विवरण के लिए निम्नांकित (तालिका-1) देख़ सकते हैं:

 

बहुजनों के पक्ष में यूपी के सामाजिक समीकरण फिर भी सत्ता से दूर

2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसलमान 38,483, 967 (20.26 फीसद) है, और भारत के उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक बनता है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की एक बड़ी शहरी आबादी है।

दलित मुस्लिम बाहुल्य जिले: अगर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और मुस्लिम वोटों के गठजोड़ से बनने वाले जिले की आबादी की बात करें तो उत्तर प्रदेश के 1. आगरा जिले में 31.90 फीसद, 2. अलीगढ़ में 40.47 फीसद, 3. इलाहाबाद में 35.53 फीसद, 4. अम्बेडकर नगर में 41.48 फीसद, 5. औरैया में 35.80 फीसद, 6. आजमगढ़ में 41.19 फीसद, 7. बदायूं में 40.21 फीसद, 8. बागपत में 39.44 फीसद 9. बहराइच में 48.42 फीसद, 10. बलिया में 25.27 फीसद, 11. बलरामपुर में 51.56 फीसद, 12. बाँदा में 30.36 फीसद, 13.बाराबंकी में 49.13 फीसद, 14. बरेली में 47.10 फीसद, 15. बस्ती में 35.80 फीसद, 16. बिजनौर में 64.47 फीसद, 17. बुलंदशहर में 42.94 फीसद, 18. चंदौली में 36.02 फीसद, 19. चित्रकूट में 30.42 फीसद, 20. देवरिया में 30.26 फीसद, 21. एटा में 24.14 फीसद, 22. इटावा में 31.76 फीसद, 23. फैजाबाद में 37.30 फीसद, 24. फर्रुखाबाद में 31.30 फीसद, 25. फतेहपुरी में 38.06 फीसद, 26. फिरोजाबाद में 31.67 फीसद, 27. गौतम बुद्ध नगर में 26.35 फीसद, 28. गाज़ियाबाद में 39.11 फीसद, 29. गाजीपुर में 31.06 फीसद, 30. गोंडा में 35.32 फीसद, 31. गोरखपुर में 30.58 फीसद, 32. हमीरपुर में 30.18 फीसद, 33. हरदोई में 44.75 फीसद, 34. जालौन में 37.95 फीसद, 35. जौनपुर में 32.94 फीसद, 36. झांसी में 35.74 फीसद, 37. ज्योतिबा फुले नगर में 58.09 फीसद, 38. कन्नौज में 35.21 फीसद, 39. कानपुर देहात में 35.48 फीसद, 40. कानपुर नगर में 33.61 फीसद, 41. कौशाम्बी में 48.53 फीसद, 42. कुशीनगर में 34.92 फीसद, 43. लखमीपुर खीरी में 47.83 फीसद, 44. ललितपुर में 28.35 फीसद, 45. लखनऊ में 42.32 फीसद, 46. महामाया नगर में 34.99 फीसद, 47. महोबा में 42.39 फीसद, 48. महराजगंज में 25.57 फीसद, 49. मैनपुरी में 25.13 फीसद, 50. मथुरा में 28.45 फीसद, 51. मऊ में 41.95 फीसद, 52. मेरठ में 52.62 फीसद, 53. मिर्जापुर में 35.08 फीसद, 54. मुरादाबाद में 66.14 फीसद, 55. मुजफ्फरनगर में 54.65 फीसद, 56. पीलीभीत में 40.61 फीसद, 57. प्रतापगढ़ में 36.20 फीसद, 58. रायबरेली में 39.91 फीसद, 59. रामपुर में 63.80 फीसद, 60. सहारनपुर में 64.08 फीसद, 61. संत कबीर नगर में 45.21 फीसद, 62. संत रविदास नगर (भदोही) में 35.39 फीसद, 63. शाहजहांपुर में 35.33 फीसद, 64. श्रावस्ती में 47.84 फीसद, 65. सिद्धार्थनगर में 45.64 फीसद, 66. सीतापुर में 52.19 फीसद, 67. सोनभद्र में 48.91 फीसद, 68. सुल्तानपुर में 39.05 फीसद, 69. उन्नाव में 42.31 फीसद, 70. वाराणसी में 28.92 फीसद, 71. कांशीराम नगर में 32.59 फीसद और पूरे उत्तर प्रदेश में 40.57 फीसद वोटर केवल दलित और मुस्लिम समुदाय के हैं।

तालिका 2 में उत्तर प्रदेश की जातियों और धर्मों के आंकड़े दिए गए हैं जो इस बात के सबूत हैं की प्रदेश का सामाजिक तानाबाना बहुजन समाजवादी पार्टियों के पक्ष में है।

गठबंधन न करने के नुकसान

उत्तर प्रदेश में सामाजिक समीकरणों के हिसाब से बहुजनों की पार्टियों को आरक्षित सीटों पर कामयाबी नहीं मिल पाती है, क्योंकि गठबंधन न होने से बहुजनों का वोट बिखर जाता है। 2007 में सरकार बसपा की इस लिए बनी कि उसके खाते में 62 सुरक्षित सीटों आयीं, जबकि सपा को 13, भाजपा को 7 सुरक्षित सीटों ही मिल सकीं। 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो उसके खाते में 58 सुरक्षित सीटें आयीं, जबकि, बीएसपी को 15 और  बीजेपी को सिर्फ 3 सुरक्षित सीटों पर ही विजय मिल सकी। 2017 में भाजपा की सरकार बानी तो उसे 70 सुरक्षित सीटों पर विजय मिली, जबकि, सपा को सात और बीएसपी को सिर्फ 2 सुरक्षित सीटों पर जीत मिली। 2022 में फिर से भाजपा की सरकार बानी है और इस बार उसे 86 में से 65 सुरक्षित सीटें मिली हैं। जबकि, समाजवादी पार्टी को 20 सुरक्षित सीटें मिली हैं। एक सुरक्षित सीट रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया की पार्टी ने जीती है। इस तरह उक्त डाटा से पता चलता है कि अब तक सर्वाधिक सुरक्षित सीटें प्राप्त करने वाली पार्टी को ही सत्ता मिली है।  

उत्तर प्रदेश संस्कृति, राजनीति और सामाजिक तानेबाने के लिहाज से महत्वपूर्ण राज्य है। प्रदेश की 80 लोक सभायें केंद्र की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस लिए यहां अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित बनाये रखने के लिहाज से इस प्रदेश की भूमिका पर विश्लेषण किया गया है। यदि लोकतंत्र को बचाना है तो संविधान को बचाना होगा, संविधान को बचाने के लिए उत्तर प्रदेश के अंबेडकरवाद और समाजवाद का गठजोड़ कराना होगा। समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में यदि इस बार बसपा होती तो उसे कुल 49.06 फीसद वोट मिलते जो एनडीए के 43.8 फीसद के मुकावले 6 फीसद अधिक होते। इस लिए अभी हम यह नहीं कह सकते कि उत्तर प्रदेश से अम्बेडकरवाद और समाजवाद का सफाया हो गया है। उपरोक्त विश्लेषण से पता चलता है की अम्बेडकरवाद आज भी जिन्दा है

बहुजनों की राष्ट्रीय पार्टी

तमिलनाडु में सत्ताधारी द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK) की नजरें अब उत्तर भारत की ओर हैं। पेरियार ई. वी. रामास्वामी की छत्रछाया से निकली यह पार्टी कांग्रेस को छोड़कर भारत में विधानसभा चुनाव जीतने वाली पहली पार्टी थी। उत्तर भारत में पैठ जमाने की ख्वाहिश लिए DMK ने पेरियार के सहारे की आगे बढ़ने का मन बनाया है। पेरियार के तर्कवादी आंदोलन ने दक्षिण की राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया। 1916 में एक राजनैतिक संस्था 'साउथ इंडियन लिबरेशन एसोसिएशन' की स्थापना हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य था ब्राह्मण समुदाय के आर्थिक और राजनैतिक शक्ति का विरोध और गैर-ब्राह्मणों का सामाजिक उत्थान। यह संस्था बाद में ‘जस्टिस पार्टी’ बन गई। 1944 में पेरियार ने जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर ‘द्रविड़ कड़गम, कर दिया। इसकी विभिन्न शाखाओं और डीएमके जैसी द्रविड़ियन पार्टियों के सदस्यों ने खुले तौर पर नास्तिकता का प्रसार और उसे स्वीकार किया। हालांकि, समय बीतने के साथ ही इसके कुछ मानने वालों ने धर्म और धार्मिक रीतियों का पालन शुरू कर दिया, जिसके खिलाफ पेरियार ने जीवन भर संघर्ष किया था।

अब उन्हीं के सहारे डीएमके उत्तर भारत की राजनीति में एंट्री चाहती है। तमिलनाडु की डीएमके सरकार पेरियार जयंती (17 सितंबर) को 'सामाजिक न्याय दिवस' के रूप में मनाती है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की रक्षा का प्रावधान करने वाले, पहले संवैधानिक संशोधन अधिनियम को लागू करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। पेरियार की विचारधारा के सहारे डीएमके उत्तर भारत में राजनीतिक जमीन तैयार करना चाहती है।

तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टी डीएमके ने अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर कदम बढ़ाने के लिए दिल्ली में अपनी  पार्टी का कार्यालय खोल दिया है। इसके उद्घाटन के मौके पर सोनिया गांधी, सीताराम येचुरी और अखिलेश यादव मौजूद रहे। अब स्टालिन पार्टी को क्षेत्रीय दल तक सीमित नहीं रखना चाहते। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को आगे बढ़ाना चाहते हैं। अभी डीएमके 23 सांसदों के साथ लोक सभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। इस तरह, डीएमक देश के दो विशालतम दलों बीजेपी (303 सीटें) और कांग्रेस (52 सीटें) के बाद सबसे ज्यादा सीटें जीतने पार्टी है। स्टालिन को अभी तक लग रहा था की उत्तर भारत के बहुजनों की सबसे बढ़ीं पार्टी बीएसपी है उसकी नेता बहिन मायावती धीरे धीरे बहुजनों में अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। अत: जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के जनाधार को इकठ्ठा करके सामजिक न्याय की राजनीति करने हेतु उत्तर भारत में मान्यवर एम के स्टालिन कदम बढ़ाना चाहते हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का स्थान

विगत वर्षों में बहन मायावती की विश्वसनीयता में कमी आयी है इसमें कोई संदेह नहीं है। उन पर सबसे बड़ा आरोप है कि वे भाजपा और आरएसएस की नीतियों की समर्थक हैं, और भाजपा का खुलकर विरोध नहीं करती हैं, जबकि उनके वोटर समुदाय अधिकतर भाजपा की नीतियों के विरोधी हैं। हम एक नजर विभिन्न राज्यों में उनके वोट शेयर में आयी कमी को निम्नांकित तालिका 3 में देख सकते हैं :

कोई पंजीकृत दल निम्न शर्तों में कोई एक शर्त पूरी करता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर की मान्यता भारतीय चुनाव आयोग देता है;

1. कोई पंजीकृत दल तीन विभिन्न राज्यों में लोक सभा की कुल सीटों की कम से कम 2 फीसद सीटें हासिल कर ले।

2. कोई दल 4 अलग अलग राज्यों में लोक सभा या विधान सभा चुनाव में कम से कम 6 फीसद मत कर ले और लोक सभा में कम से कम 4 सीटें हासिल की हों।

3. किसी भी दल को कम से कम चार या उससे अधिक राज्यों में प्रांतीय दल की मान्यता प्राप्त हो।

जून 7, 2019 की स्थिति के अनुसार भारत में "राष्ट्रीय दल" के रूप में मान्यता प्राप्त पार्टियों में  1. भारतीय जनता पार्टी, 2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, 3. बहुजन समाज पार्टी, 4. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, 5. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, 6. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), 7. आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस, और   8. नेशनल पीपुल्स पार्टी शामिल हैं ।

चुनाव आयोग की शर्तों के अनुसार बहुजनसमाज पार्टी आज तीसरे नंबर की राष्ट्रीय है। यह 1996 से राष्ट्रीय स्तर को हासिल करके उसी स्तर पर बनी हुई है। बसपा का अभी भी 16 राज्यों में जनाधार बरक़रार है। अभी तक अंबेडकरवादियों या बहुजनों की एकमात्र अपनी राष्ट्रीय पार्टी बसपा ही है। हालांकि, अंबेडकर और कांशीराम के अनुयाइयों ने 60 से अधिक छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली हैं। कभी न कभी इन छोटी पार्टियों के नेता बहुजन समाज पार्टी, बमसेफ या रिपब्लिकन पार्टी के वर्कर या कैडर रहे हैं। आपस में विखरे होने के कारण आज तक किसी नए पुराने अंबेडकरवादी नेता में बहुजन समाज पार्टी को चेलेंज करने की क्षमता नहीं है।

गठबंधन की राजनीति के फायदे

2019 उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और रालोद के महागठबंधन को आठ सीटों 1. बदायूं, 2. बाराबंकी, 3. बिजनौर, 4. धरुहारा, 5. कैराना, 6. श्रावस्ती, 7. सीतापुर और 8. सुल्तानपुर को कांग्रेस के खराब खेल के कारण हारना पड़ा और एक सीट फिरोजाबाद पर शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी ने खेल बिगाड़ दिया। इसके बाबजूद गठबंधन ने 15 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की। इस वजह से तीन पार्टियों के सबसे बड़े गठबंधन को केवल 15 सीटों पर जीत मिल सकी। बसपा का भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में अपना मुख्य आधार है, जहां बहुजन समाज पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में 19.43 फीसद (16659754) वोटों के साथ 10 लोकसभा सीट जीतने वाली दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। वहीं समाजवादी पार्टी 18.11 फीसद (15533620) वोटों के साथ 5 लोकसभा सीट जीतने वाली तीसरी बड़ी पार्टी बनी। जबकि राष्ट्रीय लोकदल को 1.69 फीसद (1447363) वोटों के साथ कोई सीट नहीं मिल सकी। इस तरह तीनों पार्टियों के गठबंधन को कुल 39.23 फीसद (33640737) वोटों के साथ 15 सीटें मिल सकीं। जबकि एनडीए गठबंधन में भाजपा को 49.98 फीसद (42858171) वोटों के साथ 62 सीटें और सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को 1.21 फीसद (1039478) वोटों के साथ 2 सीटें मिलीं। इस प्रकार एनडीए को कुल 51.19 फीसद मिले जो बहुजन-समाजवादी गठबंधन से 12 फीसदी अधिक थे। 2022 में एनडीए का ग्राफ कम होकर 43.42 फीसद पर सिमट गया है जबकि बहुजन-समाजवादियों का वोट बढ़ कर 49.06 फीसदी पर पहुंच गया है। 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में गठबंधन से अलग होकर बहुजन समाज पार्टी के लड़ने के कारण सिर्फ 12.88 फीसद के साथ मात्र एक सीट सिमट गई है।

 2024 में महागठबंधन की गुंजाइश को ध्यान में रखते हुए 2019 महागठबंधन के आंकड़ों से सबक लेना बहुत जरुरी है। 2019 के लोक सभा चुनाव में विभिन्न जातीय समूहों ने किस पार्टी को कितना समर्थन किया तो इसका जायजा हम विभिन्न पार्टियों में जातीय समूहों के मत विभाजन द्वारा लगा सकते हैं। उस महागठबंधन के आंकड़ों पर नजर डालने पर उसमें कुछ खामियां जरूर नजर आती हैं। गठबंधन की अपने सामाजिक परिवेश के जातीय समूहों में पूरी तयारी न होने के कारण भाजपा को बहुजन समाज के जातीय समूहों का भरपूर समर्थन मिला।  तालिका 4 में देखने से पता चलता है कि अतिपिछड़ी जातियों, कुर्मी, काछी और जाट के कुल 28 फीसदी वोटों में से मात्र 4 फीसदी वोट महागठबंधन को मिल सके बाकी भाजपा को चले गए। यहां तक कि जाटव और यादव समाज के 5 फीसदी वोट भाजपा को चले गए। मुस्लिम समाज के भी ४ फीसदी से अधिक वोट भाजपा और कांग्रेस को चले गए। हालाँकि, 2022 के इलेक्शन में भाजपा के 51.59 फीसदी वोटों में से 8 फीसदी वोट बापस आ गए हैं। यह अखिलेश यादव की पार्टी की एक उपलब्धि है, जिसे आगे बरक़रार रख कर और मेहनत करनी होगी। जनाधार बढ़ाने के लिए कमजोर क्षेत्रों का अध्ययन करने के लिए तालिका 4 के आंकड़ों पर जरूर नजर डालें। विना तैयारी के महागठबंधन की योजना बनाना फिर से धोका होगी।  भाजपा के पक्ष में सामाजिक समीकरण अभी बहुत मजबूत हैं उसके मुकाबले महागठबंधन की पार्टियों को अधिक तैयारी की जरूरत है तभी 2024 की नैया पार लग सकती है (देखें तालिका 4)।

2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा को पूरे देश में 4.2 प्रतिशत और 2 करोड़ 28 लाख वोट मिले। इस तरह 2014 में बसपा तीसरे नंबर की राष्ट्रीय पार्टी बनी रही, लेकिन कोई सीट नहीं मिल सकी। भारतीय जनता पार्टी के 31.3 प्रतिशत और 17 करोड़ वोट के साथ प्रथम स्थान पर राष्ट्रीय पार्टी थी। जबकि कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत शेयर और 10.5 करोड़ वोट मिलेने पर दूसरे नंबर की पार्टी बनी रही। 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के बाद से 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा की सबसे खराब हार थी। 2009 के लोकसभा चुनावों में, पार्टी प्रमुख मायावती ने 21 सांसदों (उत्तर प्रदेश से 20 और मध्य प्रदेश से एक) के साथ देश में किंगमेकर की भूमिका निभाई थी। 2014 में, बसपा ने उत्तर प्रदेश में 19.82 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि 2009 के चुनावों में उसे 27.42 प्रतिशत वोट मिले थे। यह पार्टी के मूल मतदाता आधार में एक स्पष्ट सेंध को दर्शाता है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उस समय कई सवर्ण और ओबीसी वर्ग से संबंधित बसपा नेताओं ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था।

इन सबके बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर 1996 से 2019 तक 4-6 फीसदी के करीब बना हुआ है। दहाई के अंक से ऊपर सीटें मिलने की बात करें तो बसपा को 1996 में 11, 1999 में 14, 2004 में 19, 2009 में 21 और गत लोकसभा चुनाव  2019 में भी उसे 10 सीटें प्राप्त हुई हैं। नीचे दिए गए चार्ट में इसको देखा जा सकता है :

 

बसपा प्रमुख का बयान

बसपा प्रमुख मायावती ने कांग्रेस और भाजपा पर दलित और ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि अपने दलित समर्थकों की लगातार मांग के बावजूद, कांग्रेस ने भीम राव अंबेडकर को ‘भारत रत्न’ नहीं दिया। वीपी सिंह सरकार ने वर्षों बाद अंबेडकर को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया और मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जिससे ओबीसी को नौकरियों में कोटा मिल रहा है। इससे खफा होकर भाजपा ने तत्कालीन वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। डा. अम्बेडकर ने जवाहरलाल नेहरू सरकार से निराश होकर मंत्रिमंडल से 1951 में इस्तीफा दे दिया था, उन्होंने अपने इस्तीफे में वर्णित किया कि दलितों और ओबीसी को संविधान द्वारा आश्वासन के अनुसार उनके कानूनी अधिकार नहीं मिल रहे थे। उन्होंने 1952 में बॉम्बे से अपने ही संगठन SCF से पहला संसदीय चुनाव लड़ा, तो कांग्रेस ने उन्हें निर्विरोध जीतने में मदद करने के बजाय उनके खिलाफ एक उम्मीदवार खड़ा किया और डॉ आंबेडकर को हराने के लिए कांग्रेस सरकार ने सरकारी तंत्र का दुरुपयोग किया। डॉक्टर अंबेडकर ने दावा किया था कि उनके पक्ष में डाले गए अमान्य मतों की संख्या, वैध मतों की संख्या के बराबर थी।

दलितों और ओबीसी के आरक्षित पदों को नहीं भरने के लिए केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों को जिम्मेदार ठहराते हुए, मायावती ने कहा कि उन्होंने निजी क्षेत्र में अधिकांश रिक्तियों को आउटसोर्स किया है जहां आरक्षण लागू नहीं है। उन्होंने कहा, "कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारों ने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई, ईडी और आयकर विभागों जैसी सरकारी एजेंसियों का समान रूप से दुरुपयोग किया है।"

बहुजन समाज पार्टी का दावा है कि भविष्य में भी कांग्रेस, भाजपा और उनके द्वारा संचालित अम्बेडकरवादियों की रूकावटों के बाबजूद वह अपने मिशन की ओर आगे बढ़ेगी और अम्बेडकरवादी मिशन पर कोई आंच नहीं आने देगी। इस लिए ‘अम्बेडकरवाद जिन्दा है’ और ‘जिन्दा रहेगा, सच्चे अम्बेडकरवादियों को विरोधयों के झांसे में आने की जरुरत नहीं है।

- बहुजन एकता और अम्बेडकरवाद जिन्दाबाद!

समन्वयक- कर्नल आर एल राम (सेवानिवृत्त)     

अध्यक्ष - एस एस नेहरा, अधिवक्ता